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Showing posts from July, 2018

बारिशे

बारिशें  गर्दिशों  में हैं लेकिन दामन मेरा, भीग  गया  हैं फिर  मेरे आँसुओ से  ही!                                                तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

रविश का लेख

रवीश का लेखः औरंगज़ेब जिसने आखिरी वक्त में कहा था ‘मैं अजनबी की तरह आया और अजनबी की तरह जा रहा हूं। औरंगज़ेब और आरक्षण। इससे ज़्यादा लिखने की कोई ज़रूरत नहीं है। इन दो शब्दों को देखते ही पढ़ने वाले के दिमाग़ में जो भ्रांतियां मौजूद हैं वो बाहर आने लगती हैं। लोगों के मन में भ्रांतियों के अलावा कई जानकारियां भी सही हैं मगर उसके अलावा कुछ नया जानने की ज़रूर महसूस नहीं करते हैं। ऐसे लोगों का दिमाग़ औरंगज़ेब लिखा देखते ही अपने भीतर मौजूद छवियों को ज़हन के जहान में संदेश प्रसारित करने लगता है। जो अलग-अलग माध्यमों से गढ़ी जा रही छवियों के आधार पर उनके भीतर बनता चला आ रहा है। मसलन आप को लाल रंग के चाहे जितने रुप दिखाए जाएं,आप उनकी पहचान या तो ग़ुलाब से करेंगे या कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे से या फिर ख़ून से। हम सबका दिमाग़ लाल को किसी और रूप पहचानने का प्रयास ही नहीं करता है। ऐसे लोगों के लिए Audrey Thruschke ने Aurangzeb,The Man and They Myth किताब लिख कर जो कोशिश की है, वह कितनी सफ़ल होगी, कहना मुश्किल है। पेंग्विन प्रकाशन से छपी 399 रुपये की यह किताब उन लोगों के लिए भी जो यह समझते हैं कि और