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Showing posts from November, 2017

रूबरू मांगे हैं....

होकर जख्मो से ये रूबरू मांगे हैं, कलम हैं आँसुओ की वुजू मांगे हैं! ये भी गज़ले कोई गज़ले है भला, ग़ज़ल तो शायर का लहू मांगे हैं। तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

गिला ना था....

मुझे उससे कोई भी गिला ना था, वो मेरे साथ कुछ दूर चला तो था! आँखे बिछाये बैठा हूँ दरवाजे पर, उसने आने के लिए कहा तो था! वो मुझसे पहले पहुँचा मंज़िल पर, हाँ थोडा सा तेज़ वो चला तो था! मेरा उस रात चाँद से वास्ता ना था, मेरे घर एक जलता दीया तो था! ये अलग बात के मेरे दोस्त भी थे, और भी था के मैं 'तनहा' तो था! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

मंज़िल के लिए घर से निकलना जरूर हैं...

मंज़िल के लिए घर से निकलना जरूर हैं, वापस नही हैं मुड़ना वहीं सम्भलना जरूर हैं! फलक पर बैठा चाँद यही कहता है रोज़, कुछ ख्वाबो का आँखों में पलना जरूर हैं! पैमाना उठाकर मैख़ाना उठाने लगे शराबी, शराब को पीकर इनका मचलना जरूर हैं! झूट से, मक्कारी से, फ़क़त हैं उसके रिश्ते, चाहे कोई भी मुद्दा हो उसे बोलना जरूर है! बहुत पक चुके झूठी तकरीरे सुन-सुनकर, कैसे भी उसके होठों को सिलना जरूर हैं! ना मिले वो तो कोई और मिलेगा हमे भी, किसी से ही सही दिल को बहलना जरूर हैं! इश्क़ कोई खेल नहीं बस ये जानिए 'तनहा', एक आग का फूल हैं और चलना जरूर हैं! वो नहीं आएगा आज शाम इस राह से फिर भी, मुझ बेताब को बालकनी में टहलना जरूर हैं! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

मुश्किल हैं...

बड़ा मुश्किल हैं दिल की हर बात कहना, जैसा रात को दिन, दिन को रात कहना! हर जख्म दिल का उसका ही नाम लेता हैं, कहीं वो मिले तो मुझसे मुलाकात कहना! सच्चाई कड़वी होती हैं, रिश्ते तोड़ देती हैं, सच जब भी कहना नरमी के साथ कहना। पूरा दिन लेक्चर करके टूट जाना और फिर, रात को कलम से कागज़ पर जज़बात कहना! रोता है 'तनहा' ग़म-ए-जुदाई में इस कदर, होती हैं आँखों से खून की बरसात कहना। तारिक़ अज़ीम 'तनहा'