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Showing posts from June, 2018

नज़र से मारिए

उठाकर के पलके तिरछी नज़र से मारिए, आईनासाज़ हैं 'तनहा' उसे पत्थर से मारिए! बता दीजिये कैसे उसकी बेटी को लूटा, बताकर उसकी माँ को इस खबर से मारिए! ये हैं तरीका उसको बर्बाद करने का, उसके ही अक्स को उसके घर से मारिए! एक बार में कर दीजिये हमे दफ्नो-क़त्ल आप, रोज़ यूँ ना तंज करके इधर-उधर से मारिए। संस्कृति-ओ-आसिफा थी इज़्ज़त-ए-चमन, हवस में ना इनको गुलशने-दहर से मारिए! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

Eid Mubarak

दूर अपने वतन से, माँ की नज़र से दूर ईद कैसी, परदेसी की ईद क्या, घर से दूर ईद कैसी! हम ना जा सके, करीब वो भी ना आ सके, तवीले-सफ़रे-चाँदे-दिलबर से दूर ईद कैसी! मंज़िल ही ईद हैं, ये रास्ते हैं चाँदरात जिंदगी में, भला इंसान की जिंदगी में सफ़र से दूर ईद कैसी! गुज़रे हुए सालो में गुज़री दोस्तों के साथ अच्छी, आज अहबाबे-लालो-गौहर से दूर ईद कैसी! माँ रोई फोन पे कहते हुए की 'तनहा' तेरे बिन, हर शै बे-मज़ा, टुकडा-ए-जिगर से दूर ईद कैसी! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

तक़ल्लुफ़

अंदर ही मकाँ के उसने मुझे रुखसत कर दिया! छोड़ने  का उसने  दर पे  तक़ल्लुफ़ नहीं किया, तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

हर अपने सितम से मुझको

हर अपने सितम से मुझको दो-चार कर गया, नीलाम उल्फत में मुझे मेरा यार कर गया! मुफ़लिसी में कहाँ जोर बनाये वो ताज को, एक शाह हम ग़रीबो को शर्म-सार कर गया! अपनी अज़मत को झुकाया ना उसने कभी सर, लहजा ये उसका, उसको खुद्दार कर गया! ख़याल उसका आया था ज़हन में फिर, धीरे से आँसुओ की चलती कतार कर गया! 'तनहा' तुम तो लिखते हुए रोते भी बहुत हो, हर एक शेर तेरा तुझको बेज़ार कर गया! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

मैं खुद ही अपनी मंज़िल हूँ....

मैं  खुद ही अपनी मंज़िल हूँ, और सफ़र भी मेरा मुझमे हैं! मैं कभी अकेले चलता नहीं हूँ, हमसफ़र भी मेरा मुझमे हैं! मैं  एक  महफ़िल  हूँ चलती फिरती, शोर शराबा मुझमे हैं, एक ख़ामोशी हूँ  तन्हाई जैसी और दहर भी मेरा मुझमे हैं! खाना सबको खिलाता हूँ, कभी खून की नदिया बहाता हूँ, मैं हूँ  रहम दिल  कभी  बातिल हर बशर भी मेरा मुझमे हैं! मैं  जिसको  चाहे जैसा  देखूँ,  मेरी  मर्जी  हैं मैं वैसा देखूँ, आँखे  मेरी  अपनी अपनी हैं और नज़र भी मेरा मुझमे हैं! मैं  गूँगा  हूँ  और  'तनहा'  हूँ, बस डायरी में लिख लेता हूँ, जब कलम चले तो जमाना डरे सुखनवर भी मेरा मुझमे हैं! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

तन्हाई

उल्फत में इंसा खुद अपना रहजन होवे। कमरे में अँधेरा कर इनकी तन्हाई रौशन होवे। रस्मे-दुनिया हैं की कोई खुश तो कोई नाशाद हो, उठ जाए जब महफ़िल तो तन्हाई आबाद हो। तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

सहने लगते हैं।

दुःख जब भी तेरा हम सहने लगते हैं, फिर इक नई ग़ज़ल हम कहने लगते हैं! जिन्दा दिली जब मर जाती हैं इंसा में, उदास फिर वो सरे-शाम रहने लगते हैं! जिस शब में उसकी याद आती हैं फिर, खून के अश्क़ आँखों से बहने लगते हैं! इश्क़ के दर्दे-जेवर से अमीर हो जाए, जिस आशिक़ के हाथ ये गहने लगते हैं! 'तनहा' अंदर का शायर चीख उठता हैं, कलम से जब हम चुप रहने लगते हैं! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

मक़ाम लिख दिया।

मन्ज़िललिखी,मेहनत लिखी,मक़ाम लिखदिया, जिंदगी की शोहरत का इंतज़ाम लिख दिया! फिर कहाँ वो धरते फिरते किसी के सर क़त्ल, लोगो ने मेरे सर ही कत्ले-इल्ज़ाम लिख दिया! खुद तू तो सोये चैन से, मैं दर-ब-दर फिरू, क्यों तुमने मेरे हिस्से दर-ओ-बाम लिख दिया! हाय! कहर से मयखाना उठाने लगे रिन्द भी, साक़ी ने अपने होंठो का मुझे जाम लिख दिया! जिंदगी तो क्या हैं एक जुस्तुजू हैं मंज़िल की, और जिंदगी का मौत ही मकाम लिख दिया! हमनेजबभी तेरेअक्स-ओ-तसव्वुर पे बात की, तेरी दिलफरेब अदा को सरे-शाम लिख दिया! जन्नत भी उसके कदमो को चूमते आई थी, हमने जब भी माँ के लिए कलाम लिख दिया! ता-उम्र ना जमाना सितमगर को भूल पायेगा, 'तनहा' ने लहू जो उसका नाम लिखा दिया! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

जब मेरी याद आ रही होगी।

जब मेरी याद आ रही होगी, अक्स फिर मेरा बना रही होगी! इतना कहर ढाती हैं की मर जाऊ, जब वो बिंदिया लगा रही होगी! क्लास में कुछ दूर बैठकर के वो, मुझसे नज़रे मिला रही होगी! मुझसे एक शेर ना हुआ अब तक, और वो ग़ज़ल नज़र आ रह होगी! दुनिया एक दम से रुक गयी होगी, जब वो चिलमन हटा रही होगी! 'तनहा' तुम तो बहुत जालिम हो, और वो अच्छा बता रही होगी! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

पागल हो गया हूँ

शहर सा था कभी अब जंगल हो गया हूँ, खुशकिस्मती देखिये की पागल हो गया हूँ! गज़ले-मुमताज़ दफ़न हैं दिल की इमारत में, शहज़ादा शाहजहाँ का ताजमहल हो गया हूँ! गीत, ग़ज़लो से सभी पर प्यार लुटाता हूँ, खुशबू बिखेरता एक संदल हो गया हूँ! अपना मयार बढ़ाओ गर समझना हैं मुझे, पागल तुम भी बनो, मैं तो पागल हो गया हूँ! हमने तेरी जुदाई को हैं अपने फन में ढाला, कभी गीत लिखे, तो कभी ग़ज़ल हो गया हूँ! कभी हम दोनो भाई साथ-साथ रहते थे, दस्तार की वजह से अदल-बदल हो गया हूँ! कभी मेरी भी शानो-शौकत की झोपडी थी, 'तनहा' जब से हूँ, उजड़ा महल हो गया हूँ! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'