दूर अपने वतन से, माँ की नज़र से दूर ईद कैसी,
परदेसी की ईद क्या, घर से दूर ईद कैसी!
हम ना जा सके, करीब वो भी ना आ सके,
तवीले-सफ़रे-चाँदे-दिलबर से दूर ईद कैसी!
मंज़िल ही ईद हैं, ये रास्ते हैं चाँदरात जिंदगी में,
भला इंसान की जिंदगी में सफ़र से दूर ईद कैसी!
गुज़रे हुए सालो में गुज़री दोस्तों के साथ अच्छी,
आज अहबाबे-लालो-गौहर से दूर ईद कैसी!
माँ रोई फोन पे कहते हुए की 'तनहा' तेरे बिन,
हर शै बे-मज़ा, टुकडा-ए-जिगर से दूर ईद कैसी!
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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