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Showing posts from April, 2017

इन्साफ कब होगा।

बादशाह ओ औलिया को ढूंढता हूँ मैं, हकपरस्त ए हुक़ुमरां को ढूंढता हूँ  मैं! दयारे-नसीम-ऐ-कानून हर सू चले, ऐसी  ही चमन ए फ़िज़ा ढूंढता हूँ मैं! वकारे-सू-ए-दारे-अहले-सिपाही, औरंगज़ेब  अबके ऐसा   ढूंढता हूँ मैं! जबीं सज्दे में लबो पे नामें-अल्लाह, खातिर में रश्क-ए-खुदा ढूंढता हूँ मैं! जो हो खिलाफ इस तीन तलाक से, दौर-ए-गर्दिश-ए-बुतां ढूंढता हूँ मैं! दिल मशगूले-मामूर होंठो पे अर्जिया दिले-सदा दे  ऐसी दुआ  ढूंढता हूँ मैं! लेके चराग़ इन आदमियो के शहर में, बचा  हैं क्या  कोई इंसा  ढूंढता  हूँ मैं! इन  लोगो के अलम ओ दुःख  दर्द से, हुक़ूमत तेरी खात्मा-फ़ना ढूंढता हूँ मैं! भले ही मेरा मुब्तिला सब से हैं मगर, फिर भी खुद  को 'तनहा' ढूंढता हूँ मैं! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

हुक़ूमत तेरे पाँव में ज़ंज़ीर हम डाल कर के रहेंगे।

क़ुरआन, इस्लाम, हदीस तो आसमानी हैं, तिरी हुक़ूमत तो बस पांच दिन की कहानी हैं! मिटा भी सकते हैं तिरी हुक़ूमत को हम सब, अगर हम ये सोच ले की हुक़ूमत मिटानी हैं! फ़ाक़ा करके भी रहे हैं जिन्दा रहे ईमान पर, सिर्फ गोश्त खाना ही हमारी कहाँ निशानी है! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

चंद अश्आर

(1) मैदाने-हश्र को भूल गए हम मसरूफ होकर, इस जिंदगी को ऐसे मसरूफ़ होकर ना गुज़ारो! (2) अब अपने कदमो पे भी यकीन ना रहा मुझे, उतरा हूँ आज सीढ़ियों से तो दीवार का सहारा लेकर! (3) मिरी दास्ताने-महब्बत इतनी भी तवील नहीं, आगाज़ उसकी नज़र से हैं इंतेहा जफ़ा पे बस! (4) बोझ ना मान गर लड़की हुई पैदा, बस इतना जान ले खुदा की रहमत हैं! (5) 'तनहा' जो लोग हर चीज़ की कीमत बताते हैं, मुझे ये  बेचारे  नए   नए  रईस नज़र आते  हैं,                       (6) मुझे मुन्तशिर जानना तिरी भूल होगी, मिरी गुफ़्तार से हैं हुज़ूम-ए-मु त्ताहि द!        तारिक़ अज़ीम 'तनहा'