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Showing posts from January, 2017

Tujhe Bulaane....

तुझे बुलाने पर क्या तब्सिरा करू! मैं 'तनहा' हूँ....क्या ये काफी नहीं!! TUJHE BULAANE PAR KYA TABSIRA KARU MAIN 'TANHA' HU KYA YE KAAFI NAHI'N

तीरगी

शबे-माहताब....

तुझसे नज़र मिलायी....

सितमगर हैं.....

Waqt E Dushwaar Hain

नामालूम

मैंने इशारा किया उसने सलाम लिख भेजा मैंने मैंने pucha Tumahara naam kya hain Usne chand likh bhejha Maine pucha tumhari aankhe kaisi hain Usne jaam likh bhejha Maine pucha kya chahiye tumhe Usne saara aasman likh bhejha Maine pucha kab miloge Usne qyamat ki sham likh bhejha Maine pucha kiss se darte ho Usne muhabbat ka anjaam likh bhejha maine pucha kiss se nafrat hain tumhe Jalim ne mera naam likh bhejha ---unknown ---- नामालूम

रमज़ान स्पेश्ाल

गुलशन की तलब हैं ना, सितारों की तलब हैं! मुझे तो बस गुज़रते रमज़ान की, बहारो की तलब हैं!! सेहरी ओ इफ्तार पे,.... वो खुशनुमा आलम! इबादत का हो हर लम्हा नज़ारो की तलब है !! नबी के इश्क़ में तुझसे,......दुआ है या रब! नज़र आए नबी खवाबो में बेचारो की तलब है !! मौत से पहले देखले एक बार शहर नबी का! इफ्तार हो मदीने में रोजेदारों की तलब है!!

यादे

वो पूछते वो तुम्हरी आँखों में था, क्या था! कहता मैं हूँ वो छाया तेरी यादो का धुँआ था!!

खवाब

खुली आँखों में कोई  ख्वाब रख दिया ! मंज़िल का नाम मैंने किताब रख दिया!! पूछा मैंने क्या गुनाह किया हैं आखिर! उसने रोती शबो का हिसाब रख दिया!!

तज़किरा

दर्द का फिर तजकिरा किया जाए! जख्मो पर भी तब्सिरा किया जाए!! उनके नाम करदो ये तजल्ली सारी! तीरगी पर नाम मिरा किया जाए!! -----तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
जब  खुद से  ही कोई राब्ता नहीं तब  से मंज़िल का  मुझे पता नहीं देखा  जब से उस कैफे-चश्म को मेरा मुझमे फिर कुछ भी रहा नहीं बहुत ढूँढा आदमी के अंदर तलक हैरत हुई इंसान उसमे मिला नहीं कोशिशे लाख की मगर बेबस था तेरा गमे-हिज़्र दिल से गया नहीं जो दिखाते थे अच्छे दिन की राह हमे एक भीअच्छा दिन दिखा नहीं मिल गयी एक भीड़ मेरे दिल को बैंक की लाइन में, मैं 'तनहा' नहीं ----तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
अहदे-वफ़ा उनसे निभाया ना गया प्यार कभी उनसे जताया ना गया क्या रकीबे-दामन इतना खूब था जो बज़्म में हमे ही बुलाया ना गया बर्के-सोजा ने फूँक डाला आशियाँ मुझसे फिर नशेमन बनाया ना गया वो ना होता, तो और ख्याल होता उससे  ही दामन छुड़ाया ना गया जिसे भूलने की बात करता था मैं हमे उसे ही कभी भुलाया ना गया देख ली जो उस परीवश ने तन्हाई मुझे फिर 'तनहा' बताया ना गया -----तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

हक़ीक़ते-हिन्द

चेहरे जिन लोगो के चमकदार निकलेंगे जमीर उनके उतने ही दागदार निकलेंगे जो मुखोटे लगाये हैं ख़ुशी के चेहरे पर दिल के अंदर से वो लोग बेज़ार निकलेंगे जिससे सारा हिन्दुतान हो चूका परेशान तारीफ़ करते उसकी अखबार निकलेंगे तुझे जख्मी देखकर हम सहम उठते हैं हम ही जख्म भरेंगे, गमखवार निकलेंगे जब छा जायेगी कभी गुलशन में खिज़ा करने को इसे शादाब हम बहार निकलेंगे नज़र जब भी उठेगी इस मुल्क की तरफ लेकर साहिबे-ईमान तलवार निकलेंगे रट लगा के बैठे हैं जो अच्छे दिनों की हर काम में उनके ही भृष्टाचार निकलेंगे दोस्ती अगरचे कर तो दुश्मनो से पूछ वरना ए 'तनहा' आस्तीन में खार निकलेंगे

गांधीजी की फ़ोटो ग्रामद्योग से हटाये जाने पर कुछ मिसरे समात करे।

हवा कभी भी आंधी बन नहीं सकती! पत्ती नीम की निशांधी बन नहीं सकती!! तुझे कोई गांधी माने ये दूर की बात है! तस्वीरे भी तेरी गांधी बन नहीं सकती!!

गांधी जी का चरखा।

शरीर कभी आत्मा हो नहीं सकता ! शैतान कभी परमात्मा हो नहीं सकता!! कातिल को मरते दम तक कातिल कहेंगे! कातिल कभी महात्मा हो नहीं सकता!!
मैं 'तनहा' हूँ  मुझे छोड के     मत जा मुहब्बत का ये रिश्ता तोड़ के मत जा साँस  थम जायेगी मेरी   तेरे जाने से खुदा के वास्ते!   मुँह मोड़ के  मत जा ----तारिक़ अज़ीम तनहा

काजी मोहियुद्दीन जी की याद में कुछ मिसरे।

ये जो मंगलौर में राहते,  नज़र आयी हैं! ये उसी शक्स की दुआए  असर लायी है!! थे वो सियासी हुक़ुमरा मगर थे एहले कलम हमे बताते प्यारी बाते कभी कहते कोई नज़्म जो ख्याल रखतेसभी का, सब चुनतेउन्हे ही जीतते हर दफा डगमगाया नहीं कभी अज़्म कहाँ अब उनकी बराबरी सा कोई जहाँ मे अज़ीम शख्सियत थे वो मेरे हिन्दोस्ताँ में जब वो बोलते तो लबो से भी फूल झड़ते थे इतनी मिठास थी उनके अंदाज़ ए बयाँ में तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

काजी मोहियुद्दीन जी की याद में कुछ मिसरे।

ये जो मंगलौर में राहते,  नज़र आयी हैं! ये उसी शक्स की दुआए  असर लायी है!! थे वो सियासी हुक़ुमरा मगर थे एहले कलम! हमे बताते प्यारी बाते कभी कहते कोई नज़्म! जो ख्याल रखतेसभी का, सब चुनते उन्हे ही! जीतते हर दफा डगमगाया नहीं कभी अज़्म!! कहाँ अब उनकी बराबरी सा कोई जहाँ मे! अज़ीम शख्सियत थे वो मेरे हिन्दोस्ताँ में!! जब वो बोलते तो लबो से भी फूल झड़ते थे! इतनी मिठास थी उनके अंदाज़ ए बयाँ में!!!!

मौसम जो सुहाना हुआ जाता हैं

मौसम जो सुहाना हुआ जाता है दिल फिर दीवाना हुआ जाता है आ गए छत पर खुशिया उड़ाने मांझे से पतंग उड़ाना हुआ जाता है उठा दे आवाज़ खिलाफ जुर्म के धीरे से उसे दबाना हुआ जाता है आ जाओ के यहाँ है इश्के-दवा बज़्म में पीना-पिलाना हुआ जाता है फिर रात में इक शम्अ जलती हैं 'तनहा' फिर परवाना हुआ जाता है

Nighae-Nigaar Sitam sa-aar

निग़ाहें-निगार सितम-सआर ही सही निगाहें-यार से दिल फिगार ही सही जब ज़माना बन चूका हैं अदु हमारा तो तेरे हाथो में भी तलवार ही सही मुस्कान नहीं रुख पर अब अपने यूँ इश्क़ में दिल बेचारा बेज़ार ही सही तुम नहीं अब मेरे फिर ये क्या कम हैं तेरी यादो में दिल गिरफ्तार ही सही 'तनहा' लिखता हूँ खिलाफे-जुल्मत मैं सबकी आँखों में यूँ खार ही सही ----तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
तक़दीर जो हमपर मेहरबाँ नहीं! हमसे कोई तरहे-आशियाँ नहीं! लौट आओ ऐ ताइर गुलशन में! बहार आ गयी अब ख़िज़ाँ नहीं!! गम ओ रुसवाई ऐदर्द में मज़ा हैं! सच ये हैं हम इनसे परेशाँ  नहीं!! हमसफ़ीर ने फूंक डाला नशेमन! इसमें कसूरे-बर्के-आसमाँ नहीं!! 'तनहा' ये जाना कलम देखकर! जुबां नहीं इसकी मगर बेज़ुबाँ नहीं!!