जब खुद से ही कोई राब्ता नहीं
तब से मंज़िल का मुझे पता नहीं
देखा जब से उस कैफे-चश्म को
मेरा मुझमे फिर कुछ भी रहा नहीं
बहुत ढूँढा आदमी के अंदर तलक
हैरत हुई इंसान उसमे मिला नहीं
कोशिशे लाख की मगर बेबस था
तेरा गमे-हिज़्र दिल से गया नहीं
जो दिखाते थे अच्छे दिन की राह
हमे एक भीअच्छा दिन दिखा नहीं
मिल गयी एक भीड़ मेरे दिल को
बैंक की लाइन में, मैं 'तनहा' नहीं
----तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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