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Showing posts from October, 2020

Bahadur Shah Zafar

जिस वक़्त दिल्ली की शायरी उरूज पर थी जब नवाब मुस्तफा ख़ां शेफ्ता कह रहे थे "शायद इसी का नाम मोहब्बत है 'शेफ़्ता' इक आग सी है सीने के अंदर लगी हुई" या शेख़ इब्राहिम ज़ौक़ कह रहे थे 'रहता सुखन से नाम क़यामत तलक है ज़ौक़ ,औलाद से रहे यही दो पुश्त चार पुश्त' और ग़ालिब कह रहे थे बस आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना' या शौक़ हर रंग रकीब ए सर ओ सामां निकला और दाग़ कह रहे थे 'कम नसीबी इस को कहते हैं कि मेरे वार पर, दश्त ए साक़ी से इधर शीशा उधर साग़र गिरा दिल्ली के बारे में कभी मीर ने भी कहा था था "दिल्ली के न थे कूचे थे औराक़-ए-मुसव्वर थे जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई जंग ए आज़ादी के वक़्त आख़िरी मुग़ल बादशाह अपने वतन से बिछड़ने पर रंगून की जेल में भीत पर लिख रहा था "बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में" आज उन्हीं बहादुर शाह ज़फ़र की यौम ए विलादत है  1857 में जब हिंदुस्तान की आजादी की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-