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Showing posts from 2022

दीवाली और करवाचौथ मुसलमानों का त्योहार होते तो?

*अगर....?* __________ अगर करवाचौथ मुसलमानों का त्योहार होता तो एक महीने पहले से ही मीडिया पर डिबेट शुरु हो जाती, आखिर औरत ही क्यों ?* , *मर्द क्यों नहीं रखता औरत की लम्बी आयु के लिये उपवास* *आखिर औरत पर यह अत्याचार कब तक* ठीक इसी तरह अगर दिवाली मुसलमानों का त्यौहार होता तो यहाँ भी मीडिया पर हर रोज डिबेट चलती...  *यह त्योहार नहीं इसकी आड़ में है बम फेंकने की प्रैक्टिस* संबित पात्रा ऐसा रोता... ऐसा रोता... ऐसा रोता कि दिये मे तेल कि जरूरत ही न पड़ती... सारे दिए उसके आँसू से भर जाते....  अमीश देवगन और अमन चोपड़ा जैसे एंकर कंधे पर ऑक्सीजन सिलेंडर लादकर स्टूडियो पहुंचते और ऑक्सीजन मास्क लगाकर शो करते,बताते कि कैसे रास्ते में धुएं से दम घुटने से वो मरने वाले ही थे कि ऑक्सीजन सिलेंडर ने उनकी जान बचा ली.... गौरव भाटिया डिबेट के लिए आईसीयू में जाकर लेटता और वहीं से डिबेट में भाग लेता.... तरह तरह की मीडिया हेडलाइन चला रही होती-  *"दहशतगर्दी का त्यौहार..हिंदू बेबस और लाचार"..*  *"देश की फिजाओं मे बम ही बम.. कैसे न घुटे आम आदमी का दम"..*  बेचारे दिए,मूर्तियाँ और पटाखे बेचने वाले

The Deserted Houses of the Villages | Harsh Reality of Indian Culture

#सूने_घर किसी दिन सुबह उठकर एक बार इसका जायज़ा लीजियेगा कि कितने घरों में अगली पीढ़ी के बच्चे रह रहे हैं ? कितने बाहर निकलकर नोएडा, गुड़गांव, पूना, बेंगलुरु, चंडीगढ़, बॉम्बे, कलकत्ता, मद्रास, हैदराबाद, बड़ौदा जैसे बड़े शहरों में जाकर बस गये हैं?   कल आप एक बार उन गली मोहल्लों से पैदल निकलिएगा जहां से आप बचपन में स्कूल जाते समय या दोस्तों के संग मस्ती करते हुए निकलते थे।  तिरछी नज़रों से झांकिए.. हर घर की ओर आपको एक चुपचाप सी सुनसानियत मिलेगी, न कोई आवाज़, न बच्चों का शोर, बस किसी किसी घर के बाहर या खिड़की में आते जाते लोगों को ताकते बूढ़े जरूर मिल जायेंगे। आखिर इन सूने होते घरों और खाली होते मुहल्लों के कारण क्या हैं ? भौतिकवादी युग में हर व्यक्ति चाहता है कि उसके एक बच्चा और ज्यादा से ज्यादा दो बच्चे हों और बेहतर से बेहतर पढ़ें लिखें।  उनको लगता है या फिर दूसरे लोग उनको ऐसा महसूस कराने लगते हैं कि छोटे शहर या कस्बे में पढ़ने से उनके बच्चे का कैरियर खराब हो जायेगा या फिर बच्चा बिगड़ जायेगा। बस यहीं से बच्चे निकल जाते हैं बड़े शहरों के होस्टलों में।  अब भले ही दिल्ली और उस छोटे शहर में

Geet chaturvedi on target of contemporary illiterate poets | Geet Chaturvedi | Hindi Poet

गीत चतुर्वेदी न तो अदब की इब्तेदा हैं न इंतेहा। लेकिन एक कवि हैं और उनके कवि होने से इसलिए भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनकी कविता कम अज़ कम तनक़ीद के मीज़ान प तौली जा सकती है। उनकी कविता की तारीफ़ या मज़म्मत की जा सकती है।  लेकिन गीत के लिए एक ख़ास क़िस्म की नफ़रत मुझे लोगों में नज़र आती है। ख़राब कविता लिखने वालों की तादाद अच्छी कविता लिखने वालों से बहुत ज़्यादा है। लेकिन सबको गिरोह बना बना कर ट्रोल नहीं किया जाता फ़ेसबुक पर। लोगों के अच्छे काम की तारीफ़ होती है और ख़राब या सतही काम को नज़र-अंदाज़ कर दिया जाता है। लेकिन क्या वजह है कि गीत के साथ ये सुलूक किया जाता है… मुमकिन है कि उसे मिलने वाली शोहरत से लोग जलते हों लेकिन शोहरत तो औरों के हिस्से में भी ख़ूब आई है और ऐसे ऐसे अहमक़ों को मिली कि यक़ीन हो चला मुझे तो की भई जो शोहरत याफ़्ता है वो सतही है, लेकिन ख़ैर ऐसा नहीं है।  इसी तरह की दूसरी और तीसरी भी कोई वजह हो सकती है लेकिन मुझे लगता है अस्ल वजह गीत या उनकी कविता है ही नहीं। अस्ल वजह है लोगों के अंदर की एंग्ज़ायटी, कुछ न होने का डर, एहसास ए कमतरी।  ट्रोल करने की आदत

Dr Mokshgundam Vishveshreya

#प्रेरकप्रसंग  एक ट्रेन द्रुत गति से दौड़ रही थी। ट्रेन अंग्रेजों से भरी हुई थी। उसी ट्रेन के एक डिब्बे में अंग्रेजों के साथ एक भारतीय भी बैठा हुआ था। डिब्बा अंग्रेजों से खचाखच भरा हुआ था। वे सभी उस भारतीय का मजाक उड़ाते जा रहे थे। कोई कह रहा था, देखो कौन नमूना ट्रेन में बैठ गया, तो कोई उनकी वेश-भूषा देखकर उन्हें गंवार कहकर हँस रहा था।कोई तो इतने गुस्से में था कि ट्रेन को कोसकर चिल्ला रहा था, एक भारतीय को ट्रेन मे चढ़ने क्यों दिया ? इसे डिब्बे से उतारो। किँतु उस धोती-कुर्ता, काला कोट एवं सिर पर पगड़ी पहने शख्स पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ा।वह शांत गम्भीर भाव लिये बैठा था, मानो किसी उधेड़-बुन मे लगा हो। ट्रेन द्रुत गति से दौड़े जा रही थी औऱ अंग्रेजों का उस भारतीय का उपहास, अपमान भी उसी गति से जारी था।किन्तु यकायक वह शख्स सीट से उठा और जोर से चिल्लाया "ट्रेन रोको"।कोई कुछ समझ पाता उसके पूर्व ही उसने ट्रेन की जंजीर खींच दी।ट्रेन रुक गईं। अब तो जैसे अंग्रेजों का गुस्सा फूट पड़ा।सभी उसको गालियां दे रहे थे।गंवार, जाहिल जितने भी शब्द शब्दकोश मे थे, बौछार कर रहे थे।किंतु वह शख्स गम्भीर मुद्रा

India Needs To Be Reform Itself

इंडिया से एक आदमी अमेरिका जाता है और वह माइक्रोसेफ्ट का चीफ बन जाता है, एक आदमी गूगल का CEO बन जाता है, एक आदमी अडोबी का CEO बन जाता है एक आदमी IBM का CEO बन जाता है। ऐसे ही एक आदमी साउथ अफ्रीका से अमेरिका जाता है और वो अमेरिका जाकर ना केवल अमेरिका का सबसे बड़ा आदमी बनता है बल्कि वह दुनिया का सबसे अमीर आदमी बन जाता है। अमेरिका सरकार का सबसे बड़ा क्रिटिक होकर भी वो दुनिया का सबसे बड़ा फ्री स्पीच का प्लेटफार्म खरीदता हैं , वह ऐसा इसलिए कर पाता है, क्योंकि अमेरिका दुनिया भर से आये प्रतिभाओं का सम्मान करता है वो अपने सभी नागरिकों को और दुनिया भर से वीजा लेकर काम करने आए लोगो को भी अपने देश की तरक्की का भागीदार मानता है उन्हे आगे बढ़ने का मौका देती है। और ऐसे समय मे हम क्या कर रहे है? हम यानी दुनिया का सबसे यंग पॉपुलेशन वाला देश अपने युवाओं को रोजगार तो नही दे रहे बल्कि उन्हें एक दूसरे के कान मे अजान और हनुमान चालीसा चिल्लाने के काम मे लगाए हुए हैं। जब इस दौर का इतिहास लिखा जायेगा तो उसमे यह भी लिखा जायेगा की जब दुनिया तरक्की कर रहा था तब भारत के 80% लोग खाने के लिए मुफ्त सरकारी 5 किलो अनाज

Happy Teachers Day

ये उस्तादीयत भी बड़ा ज़िम्मेदाराना काम है कसम से....  हम ने अपने उस्ताद ए मुहतरम को इस ज़िम्मेदारी से थकते नहीं देखा, वे बड़े सहज सरल इंसान हैं जिन्होंने शागिर्दों को बेटे से भी बढ़कर जगह दी है और हम भी उनकी इस करमफ़रमाई को ख़ुदा की नेमत से बढ़कर मानते हैं लेकिन हमारे दौर के बाद के शागिर्द उस्ताद को कुछ नहीं समझते, लिया फोन कभी इसे चटकाया कभी उसे..... जब पूछो तो उस्ताद कौन हैं तो कोई कहेगा फलां थे 6 महीने पहले उनसे 2 महीने पहले फलां थे, अब कोई नहीं है बस इधर उधर कर लेते हैं बाक़ी गूगल से काम चल जाता है इसके अलावा कुछ कहते है कि ये भी उस्ताद है वो भी है जब दोनों नहीं तो फलां  हैं कोई नहीं तो हम स्वयं हैं। दस जगह मिसरे सुधरवाएँगे,  और सफलता का क्रेडिट किसी बेबहरे सयोंजक को देंगे या खुद को.... वाहः भई वाहः क्या शागिर्द हैं ? एक वो ज़माना था उस्तादों की चौपाल पर शागिर्द दरी बिछाते थे, इज़्ज़त करते थे आज तो कोई उस्ताद को नहीं समझता कुछ।  लेकिन जब टीचर डे होगा तो पोस्ट ऐसे चिपकाए फिरते हैं कि यही अर्जुन हैं, कई तो 10 -12 गुरु की फ़ोटो चेंप देते हैं। कुछ उस्तादों ने भी ये नया नियम बना लिया है कि मेरी किता

नेशनलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, एफिशएंसी

नेशनलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, एफिशएंसी आजकल के नए नवेले मैनेजमेंट गुरूओ को सुनता हूँ। ये कुछ शब्द चबाते हैं, और आजादी के बाद, देश मे फ्री मार्किट कैपिटलिज्म न अपनाने का अफसोस करते दिखते हैं। उस दौर की आर्थिक हकीकतों से बेखबर लोग यह जान लें, आज 10 विधायकों को बिक जाने की जितनी कीमत  है, तब उतना पूरे भारत देश का बजट था। कोई 190 करोड़.. । बस इतना देश की कमाई थी, टैक्स कलेक्शन था। यही खर्च था। (जिन्हें आज की दरों पर हिसाब चाहिए, तो मुम्बई की बीएमसी के आज के बजट बराबर गिन लें) ●●● फ्री मार्किट कैपटलिज्म के लिए बड़े उद्योग, बड़े बैंक तकनीक और रिस्क बियरिंग एबिलिटी वाले उद्यमी चाहिए। खासकर ऐसे लोग, जो निजी क्षेत्र में रिसर्च और डेवलमेंट का माद्दा रखते हों, जिसे सरकार बढ़ावा दे सकें। पर आजादी के वक़्त ऐसा कुछ था नही, जिसे आप बढ़ावा दे सकते। हां, टाटा बिड़ला बजाज और दूसरे नाम, किवदन्तियों की तरह प्रसिद्ध अवश्य थे। दूसरों से अमीर थे। अफीम कपास के व्यापार से कमाया पैसा था। बंगला गाड़ी, एक दो फैक्ट्री, बनवाये हुए कुछ मंदिर थे। लेकिन आर्थिक रूप रेगिस्तान इस देश के औद्योगीकरण के लिए जितनी पूंजी, तकनीक

5-10 lines on Covid-19 Awareness

We may be young or old, But we must be bold, Against the enemy untold. We can’t go to malls, Nor can we go to waterfalls, Because this virus is a-scaring, Sending our spines into a shivering. If you have to go out, think twice, Wear your mask, be wise. After coming home, sanitise, And wash your hands thrice. COVID-19 is the name, It is playing a hide-and-seek game. By following the rules, we can ensure endgame. Tejas J. Suresh

Raat Hai Izteraab Ki Chadar

आग में हम  झुलस गए इतने ओढ़ ली  फिर  अज़ाब  की  चादर एक  मंज़र मैं  सिमटे हम दोनो तान कर इन्त्साब की चादर मेरे जोगी अभी  तु  धीरे  बोल तानी है  मैने  ख़्वाब की चादर तुम मुझे आईने से  लगते हो जैसे  होती है आब  की  चादर मसख़रे पन  से  बाज़  आ जाओं ज़िन्दगी  है  हबाब  की  चादर रूह  ने  जिस्म ओढ़  रक्खा  है अब  चढाओ  गुलाब की  चादर   رات ہے اضطـــراب کی چادر جیسے صحرا سراب کی چادر آگ میں ہم جھــلس گئے  اتنے اوڑھلی پھــــر عذاب کی چادر ایک منظر میں سمٹے ہم دونوں تان کر انتســـــــــاب کی چادر میرے جوگی  ابھی تو دھیرے بول تانی ہے میں نے خواب کی چادر تم مجھـے آئنہ سے لگتے ہـو جیسے ہوتی ہے آب کی چادر مسخــرے پن سے باز آ جـاؤ زندگی ہے حبــــاب کی چادر روح نے جسم اوڑھ رکّھا ہے اب چَــــڑھـاؤ گلاب کی چادر

आया कहाँ से था वो

आया कहाँ से था वो और किधर वो गया था, वो शख़्स जिस्मे-वक़्त पर मानिंदे-हवा था। होता है क्या मक़तलों में सब देख रहा था, मैं अपने जिस्म से निकलके कुछ दूर खड़ा था। सबका यहाँ पे इश्क़ अलहदा है जाँ-बा-जाँ, तुम्हें इश्क़ कोई और हमें कुछ और हुआ था। वो कौन था जो मुझमें बिछड़ गया है आज, वो कौन था जो मुझमें मानिंदे-क़ज़ा था। बहने लगा वो आँख से चश्मों की तरह फिर, जो अश्क़ मेरी पलकों पे कई रोज़ रुका था। कुछ भी नहीं है यहाँ हमें हासिल-ए-ज़िंदगी, बस माज़ी के दरीचों में कुछ ठहरा हुआ था। खुद पर न तारी कीजियो दौलत के दुःख हज़ार, हर शख़्स जहाने-फ़ानी से 'तनहा' गया था। तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
  तो आप शाइरी सीखना चाहते हैं? अब ये कोई सिलेबस को पढ़ने की तरह सीधा सीधा काम होता तो हर साल शाइर झुँड में ग्रैजुएट होते। पर ऐसा भी नहीं कि ये इतना मुश्किल है। मुश्किल यहाँ शाइरी के नियम कतई नहीं हैं, बल्कि मुश्किलात नियम सीखने के बाद अपने अंदर शाइरी लाने की है। ज़्यादातर लोगों के अंदर शाइरी जाना ही नहीं चाहती। ऐसा इसलिए क्यूँकि वो अकेले नहीं जी सकते, वो अपने आप से बाहर दुनिया नहीं देख सकते, ज़्यादातर लोग बस लोग होते हैं, शाइर नहीं। हर आदमी जिसको ये लगता है कि उसके लिए सबसे ज़रूरी आदमी वो खु़द है, वो कभी शाइरी नहीं कर सकता। न ही वो कर सकता है जिसे आज तक मालूम ही नहीं चला कि उसे महसूस होता क्या है और क्या नहीं। कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने शाइरी के नियम तो जान लिए पर शाइरी की समझ कभी न पा सके। पर उन्होंने हार नहीं मानी, वो शेर कहते रहे। मुझे ऐसे लोग निहाँ फिज़ूल लगते हैं। अगर आपको पता चलता है कि आप कभी शाइर नहीं हो सकते तो क्यों मानव जाति का वक्त बर्बाद कर रहे हैं, हराम की ज़िन्दगी की तलब़ क्यों है आपको। जाइए कुछ और रोज़गार देखिए।  खैर जिन लोगों को ये जानना है कि शाइरी कब की जाए उनके लि