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नेशनलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, एफिशएंसी

नेशनलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, एफिशएंसी

आजकल के नए नवेले मैनेजमेंट गुरूओ को सुनता हूँ। ये कुछ शब्द चबाते हैं, और आजादी के बाद, देश मे फ्री मार्किट कैपिटलिज्म न अपनाने का अफसोस करते दिखते हैं।

उस दौर की आर्थिक हकीकतों से बेखबर लोग यह जान लें, आज 10 विधायकों को बिक जाने की जितनी कीमत  है, तब उतना पूरे भारत देश का बजट था। कोई 190 करोड़.. ।

बस इतना देश की कमाई थी, टैक्स कलेक्शन था। यही खर्च था। (जिन्हें आज की दरों पर हिसाब चाहिए, तो मुम्बई की बीएमसी के आज के बजट बराबर गिन लें)
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फ्री मार्किट कैपटलिज्म के लिए बड़े उद्योग, बड़े बैंक तकनीक और रिस्क बियरिंग एबिलिटी वाले उद्यमी चाहिए। खासकर ऐसे लोग, जो निजी क्षेत्र में रिसर्च और डेवलमेंट का माद्दा रखते हों, जिसे सरकार बढ़ावा दे सकें। पर आजादी के वक़्त ऐसा कुछ था नही, जिसे आप बढ़ावा दे सकते।

हां, टाटा बिड़ला बजाज और दूसरे नाम, किवदन्तियों की तरह प्रसिद्ध अवश्य थे। दूसरों से अमीर थे। अफीम कपास के व्यापार से कमाया पैसा था। बंगला गाड़ी, एक दो फैक्ट्री, बनवाये हुए कुछ मंदिर थे।

लेकिन आर्थिक रूप रेगिस्तान इस देश के औद्योगीकरण के लिए जितनी पूंजी, तकनीक, इन्नोवेशन और रिस्क टेकिंग एबिलिटी की जरूरत थी, उतना जिगरा और पैसा ऐसे छोटे मोटे सेठों के पास नही था।

( औऱ इन तेल बेचवों में, जिगरा तो आज भी नही है)
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सो अगले 15 साल, सूई से जहाज तक- स्टील, एविएशन, पावर, इरिगेशन, माइनिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर, फाइनैंसिंग, खाद्य प्रसंस्करण, स्पेस टेक्नॉलजी सहित हर क्षेत्र में भारत सरकार ने उद्यम खड़ा किये।

अगर इसके लिए पैसा टैक्स का लगा। लाइसेंस और कर्ज सरकार ने लिए। सारी जिम्मेदारी सरकार ने ली। तो मालिकाना हक किसी निजी व्यक्ति का क्यो हो, सरकार का ही होना चाहिए न..

क्या आप रूस से स्टील प्लांट टेक्नोलॉजी लिए, तो रूसी सरकार से सारा ठेका टाटा/ बिरला को दिला देते??

भला क्यों दिला देते??

(ऐसा रफेल मामले में मौजूदा सरकार ने अनिल अंबानी के लिए किया। श्रीलंका, म्यांमार, ऑस्ट्रलिया में अडानी के लिए किया। क्यो किया, वो आप सोचिये)

नेहरू ने ऐसा किया नही। उन्होंने स्टील अथॉरिटी इंडिया लिमिटेड बनाई। HAL बनाई, HMT बनाई, NTPC, BHEL, कोल इंडिया ..
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तमाम पीएसयू इसी तरह बने। 5-10 करोड़ की तब की इन्वेस्टमेंट, आज पांच दस लाख करोड़ की वेल्युएशन है। अरे जनाब, इस गति से आईबीएम, एपल, फोर्ड बढ़ती हैं। लेकिन आपको, यह निकम्मापन बताया गया।

और एफिशियंसी बढाने के नाम पर उन्हें बेच दिया गया है। यही आज का प्राइवेटाएजेशन है। असल मे मोनोपोलाइजेशन है। इसका एफिशिएंसी से कोई लेना   देना नही।

आप अपने धार्मिक रूझान के चलते, यह देखकर भी इग्नोर मार गए, कि कैसे चलते फिरते व्यवसाय को बेचने के लिए पहले उसका दम घोंटा है। एयर इंडिया के प्रॉफिटेबल रुट बेच दिये। बीएसएनएल को 4g लाइसेंस नही दिया। उसके टॉवर जियो को नॉमिनल भाड़े पर दे दिए। एलआईसी से जबरिया घाटे वाले इन्वेस्टमेंट कराए।

और जब बुक्स में घाटा दिखने लगा, तो इन उद्योगों को बेकार कहकर बेच दिया। उन्हें बेचने की यह चुल्ल है, जिसके समर्थन में आप खड़े हैं।
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नतीजा मंहगाई और बेरोजगारी है। आप वही सेवा, अब महंगे दाम पर ले रहे हैं। एयरपोर्ट चार्जेस अडानी ने 10 गुना बढ़ा दिए है। उसका प्रॉफिट 10 गुना हो जाएगा। और आप ही उसकी प्रॉफिट एफिशिएंसी बढ़ने पर ताली बजाते नजर आते हैं।

सरकारी उद्यम में बहुत से फालतू के कर्मचारी भी होते थे, वे आलसी थे, तनख्वाह पेंशन ज्यादा लेते थे। आपको बड़ी दिक्कत थी।

अब नए मालिक ने आपके लड़के को आधी कीमत पर कंट्रेक्चुअल रखा। दिन रात पेरता है, डबल काम लेता है। कम्पनी की एफिशिएंसी बढ़ गयी।

आपका क्या फायदा हुआ -
अरे, बच्चों को जॉब मिलना बंद हुआ। जिन्हें मिला उनकी पगार आधी हुई रे पगले...

लेकिन बेरोजगार बैठा गुप्ता , किसी बेरोजगार तिवारी को, किसी प्राइवेट कम्पनी की एफिशएंसी के किस्से भेज रहा है। गजब है?
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दुनिया मे हर जगह एफिशएंसी का मतलब ज्यादा ऑटोमेशन, कम जॉब, कम तन्खवाह, और कम्पनी का ज्यादा मुनाफा है।

उसकी एफिशएंसी तो आपके ही नुकसान पर टिकी है। सरकार अपना फायदा कम रखकर आपके लिए जॉब निकालती थी। तनख्वाह, पेंशन, जीवन सुरक्षा देती थी। आपको पसंद नही था।

आप शायद पूर्वजन्म में नेहरू का नही, अडानी का कर्ज खाये थे। सो इस जन्म में जान देकर चुकाने को अड़े हैं।

तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

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