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Showing posts from February, 2018

तेरी नफरत में।

तेरी नफरत में उजड़ने को जी चाहता है मत पुछ मेरा जी क्या क्या चाहता हैं इन गमो के लम्हों से हैं मौत बेहतर अब तो मेरा मर मिटने को जी चाहता है दिल हैं बैचैन आज , क्या करू इसका शायद ये पागल तेरे दीदार को जी चाहता है कम से कम वो छूले इसी तरह मुझको हाथो का उसके थप्पड़ खाने को जी चाहता है तमाशा हुआ अपना , बर्बादी देख चुके बहुत आफ़ताबे मानिंद डूब जाने को जी चाहता है शबे तन्हाई की सेहर तो हो कही चलकर इस वीराने दरिया में कश्ती मोड़ने को जी चाहता हैं तू ही बसा करता हैं, हर रात खवाबो में मेरा भी तेरे खवाबो में आने को जी चाहता हैं नहीं उठती तलवार गर दुश्मन हो हक़ पर ऐसी जंग में मेरा हार जाने को जी चाहता हैं जिसकी मंज़िल तुम हो, सफ़र में ना सही "तारिक़" मेरा भी ऐसी किसी राह पर चलने को जी चाहता हैं। 2014 Copyright तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

हम उन्हें अपने दिल में....

हम उन्हें अपने दिल में बसाने लगे हैं, वो मेरे जिस्म में फिर से समाने लगे हैं! हो रही रोशन मेरे दिल की हर गली, वो मुझे टूट के फिर याद आने लगे हैं। फ़क़त चला गया तू तो, तड़पे हम थे, की तुझे भूलने में भी ज़माने लगे हैं। क्यों खड़े हो, बैठो दिल के बिस्तर पर, हमारे दिल में आपके लिए शाम्याने लगे हैं। ले चल मुझे कही दूर जालिमो की बस्ती से, ये दरिंदे इंसान मुझे फिर से सताने लगे हैं! 'तारिक़' तूने तो दर्द के किस्से लिख दिए मगर लोग तेरी शायरी में अपना नाम लगाने लगे हैं! 2014 ग़ज़ल ℃ copyright

कभी शोला तो कभी अंगार हूँ मैं।

कभी शोला तो कभी अंगार हु मैं, कभी शहंशाह तो कभी लाचार हूँ मैं! दोस्त चाहे मांग ले मेरी चलती साँसे दोस्ती, पर जां लुटाने को तैयार हूँ मैं! बुनता रहता हूँ हर मौसम में ग़ज़लें, कभी शायर तो कभी फनकार हूँ मैं! विसाल हो तेरा ऐसी उम्मीद की हैं ढाल, कभी बेवफा, कभी मिलने को बेकरार हूँ मैं! वहशत हैं उन्हें, मिल तो ले वो एक बार मुझे, कभी जवाब, कभी खुद में एक सवाल हूँ मैं! अज़ीब शख्सियत हूँ जिसे चाहू अपना बना लू, शोर मचा हैं शहर में की बेमिसाल हूँ मैं! टुटा जब से रिश्ता, याद हैं वो हिज़्र, कभी दिनों को गिनना,कभी हिसाब हूँ मैं! याद आती है तो बना लेता हूँ तस्वीर तुम्हारी, कभी मुसव्विर तो कभी कलाकार हूँ मैं! हँसते हैं सब मुझ पर के मिटा ली अपनी हस्ती, मुहब्बत की अज़ीब सी फिटकार हूँ मै! मुखालिफ छोड़ना नहीं चाहते मुझे मेरे दोस्तों की तरह, अपने दुश्मनो का इस खातिर कर्ज़दार हूँ मैं! दुश्मनो के लिए भी अज़ीब सा हैं लहज़ा "तारिक़", कभी नरम दिल तो कभी तलवार हूँ मैं। 2014 ℃ copyright तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
सारी उम्मीदों को रोता छोड़ जाऊंगा इश्क़ से मैं रिश्ता तोड़ कर जाऊंगा यकीन हैं मुझको फिर भी हैं वहशत मना उसने कर दिया तो मर जाऊंगा उठेगी मय्यत तो घर के सामने से गुज़रेगी तेरे ये आखिरी मुहब्बत का नज़राना भी पेश कर जाऊंगा साँसों में महसूस करोगे, धड़कन में बसा लोगे मुझको तुमको भी सनम दीवाना मैं करके जाऊंगा आज नहीं तो कल ये नज़रे भी ढूंढेगी मुझको बुला लेना खवाबो में, मैं जरूर आऊंगा अपनों को जलाया तुमने, गैरो को कहा अपना रहना गैरो के साथ, दुनिया भी तूम्हारे नाम कर जाऊंगा तड़प ही जाओगे मेरे ना होने से बेखबर तड़पाया मुझको जैसे, ऐसे ही तड़पाउंगा मुझे सोचकर तुझे रातो में नींद नहीं आएगी हालात तुम्हारे भी अपने से कर जाऊँगा एक बार कहदो की तुम हो "तारिक़" के बस मिसरे सब झूट साबित कर जाऊंगा
वक़्त के साथ हालात बदल भी जाते हैं फिर ऐसे ही लोग बदल भी जाते हैं जिनके होंठो से बरसते हैं फूल जाने क्यों उनके लहज़े बदल भी जाते हैं किया इंतज़ार शब-ऐ-उल्फत में भी उनका आये नहीं मालूम हुआ वादे भी बदल जाते हैं रंग रहा न वो, मिली जिसको सियासत रहे पास पैसा तो सादे भी बदल जाते हैं मुनाफा-ऐ-जिंदगी हुआ तो वहीँ डेरा डाला इस तरह जिंदगी के सजदे भी बदल जाते हैं पता चले उन्हें की रईस की मय्यत हुई हैं दलाल लोगो के आंसू भी बदल जाते हैं हम सोचने को मज़बूर कर देते है 'तारिक़' हर मसलो मैं हमारे मआशरे बदल जाते है
दर्द होता हैं बहुत जब किसी धर्म का अपमान हो इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता हिन्दू हो या मुस्लमान हो ना आओ राजनीति के चंगुल में, खत्म हो जाओगे एक दिन तुम दोनों ही भाई मेरे भारत के निगहबान हो रहो साथ मिलकर, दुश्मन खुद तुमसे डरेंगे टीपू सुल्तान, राणा प्रताप तुम इस वतन की शान हो ये मौक़ा हैं दीवाली का, चलो मिलकर साथ मनाये कही विदेश में जाए तो वहा भी हमारा सम्मान हो 'तारिक़' ने लिख दिए मिश्रे, भाईचारे की खातिर सुन कर ग़ज़ल सब कहने लगे, मानो ये भारत उसकी जान हो पैग़ाम-ऐ-शहादत अंदाज़-ऐ-बयाँ दीवान-ऐ-ग़ालिब
वक़्त के साथ हालात बदल भी जाते हैं फिर ऐसे ही लोग बदल भी जाते हैं जिनके होंठो से बरसते हैं फूल जाने क्यों उनके लहज़े बदल भी जाते हैं किया इंतज़ार शब-ऐ-उल्फत में भी उनका आये नहीं मालूम हुआ वादे भी बदल जाते हैं रंग रहा न वो, मिली जिसको सियासत रहे पास पैसा तो सादे भी बदल जाते हैं मुनाफा-ऐ-जिंदगी हुआ तो वहीँ डेरा डाला इस तरह जिंदगी के सजदे भी बदल जाते हैं पता चले उन्हें की रईस की मय्यत हुई हैं दलाल लोगो के आंसू भी बदल जाते हैं हम सोचने को मज़बूर कर देते है 'तारिक़' हर मसलो मैं हमारे मआशरे बदल जाते है
रात भर तेरी यादो से दिल को जलाता रहा रात भर बहते अश्क़ो की मालाये बनाता रहा बेरुखी सिर्फ मुझसे, मुलाकाते गैरो के साथ तेरी बेवफाई की कड़िया रात भर मिलाता रहा किस्मत आज़माती है, सबने ये सुना था मेरी खुदगर्जी देखो किस्मत को आजमाता रहा तोड़ कर अहल-ऐ-वफ़ा जब गए किसी और के साथ वो बेवफा नहीं हो सकते दिल को समझाता रहा तू नहीं जिंदगी मेरी, कुछ नहीं अब शीशा-ऐ-बदन यह सोचकर तुझे हाथो की लकीरो से मिटाता रहा ये उल्फत की हिज़्र भी तेरी ही तरह हैं गम-ऐ-उल्फत का नशा रात भर सताता रहा उसका इश्क़ भी मैखाने के साकी था मानिंद ऐतबार के जाम वो हर रोज़ पिलाता रहा गर आया तो आबाद हूँ, वर्ना बर्बाद तो हु ही दो ही सवालो की गुथी रात भर सुलझाता रहा हैं तू किसी और का, कूच मैं कर ही जाऊँगा छोड़ दू शहर तेरा ऐसे ख़्वाब की ताबीर ढूंढता रहा ये कैसा गज़ब सोच मैं पड़ जाता हु अक्सर पानी पर नाम लिखकर तेरा मिटाता रहा मिली शोहरत इश्क़ में बर्बाद होने से "तारिक़" खबर ना थी जब ग़ज़लो के सरताज़ो में मेरा नाम आता रहा
मत पूछिये हमसे नज़ाकत उनकी अज़ीब हैं प्यार की रिवायत उनकी नज़रो से किया क़त्ल, मरने ना दिया दुनिया ने कहा ये हैं शराफत उनकी बेहद सताते हैं वो मुझे खवाबो में भी बढ़ती ही जा रही हैं हिमाकत उनकी सबने कहा महफ़िल शायरी के लिए चाहिये
मुस्कुरा कर मिली थी हमे जिंदगी फिर क्यों बस गयी में ये नमी हालातो ने कर दिया हमे भी जुदा सहमी सहमी सी मेरे दिल की गली आ तो जा के निकलती ये जा मेरी इस रूह को तलाश हैं सिर्फ तेरी क्यों बिछड़ गया मुझसे मेरे सनम आ ही जा तुझे प्यार की कसम बुझा हुआ सा हैं मेरे दिल का मौसम याद तुझे भी होगा रातो का आलम जब हाथो में था तेरा हाथ बालम
मुलाकात हुई तो हैं उनसे अलग सी, जुदा सी, जब नज़रे उठी हमारी, उन्होंने अपनी आँखों को पलकों में छुपा लिया हँसते हैं दुनिया के लोग मेरी हलात को देखकर मेरी बद्दुआ हैं की तुम्हे भी इश्क़ हो जाए
तेरा जिस्म हैं मानिन्दे मलबूसे हरीर हो गए हैं अब हम तेरे इश्के असीर जो राब्ता ना थे पहले मुहब्बत से आशना वो हैं अब सल्तनत ए वज़ीर चमन जारो में ना गुनगुनाया कर खीचे आते हैं जैसे पैरों में हो जंज़ीर दर ब दर इन नफरतो के शहर में गुनाह फ़क़त मुहब्बत के हैं फ़क़ीर
जवाब कुछ हो तेरा मेरी जिंदगी की खातिर हा गर हो तो ठहर जाऊंगा, ना हुई तो मर जाऊंगा
जब थका हारा आता हूँ घर तू अपने आँचल का सहारा देती है मिट जाती हैं मेरी थकाने जब माँ मुझे अपने आँचल में सुला देती हैं
सोच सोचकर उस लम्हे को मुस्कुराता हु मैं जिस पल तुमने इज़हार-ऐ-इश्क़ किया था डूब रहा हु, बचा लो सनम एक बार मुझे मुझे चाहने का कोई सबूत तो दो।
जब उतर ही गया इश्क़-ऐ-दरिया में, तो डूबने से क्यों डर रहा हूँ पता हैं मुझको ये इश्क़ जान ले लेगा फिर भी तुझसे मुहब्बत कर रहा हूँ बेरुखी बेइंतेहा, देखना भी उनका हमे गवारा नहीं जाने क्यों उनकी नफरत की तिज़ारत कर रहा हूँ मैं भी रुला सकता हूँ तुझे बहते दरिया की तरह क्या सोचकर मैं मुहब्बत की हिफाज़त कर रहा हूँ जिन्दा हु, शराब से गुज़र जाती हैं राते मेरी तेरे बाद इसी से ही बेइंतेहा मुहब्बत कर रहा हूँ इस सच पर सब हँसने लगे शायद मुझ पर मैं तुझे दिन मैं भी याद कर रहा हूँ। ये महताब-ओ-आफताब, सितारे-तारे मुझे चाहने लगेंगे शायद सामने इनके मैं नफरत की भी तारीफे कर रहा हूँ किसी बेदर्द के ही हाथो में मुहब्बत बंध गयी उसी से मैं मुहब्बत की ख्वाहिशे कर रहा हूँ मुझे तुम भी चाहना मेरा दम निकलने से पहले बस इतनी से तुझसे इल्तज़ा कर रहा हूँ गर पढ़ेंगे कलम तोडना चाहेंगे "तारिक़" बेवफाई पर जो उनकी शायरी कर रहा हूँ।
दिल है आईना-ए-हैरत से दो-चार आज की रात ग़म-ए-दौरां में है अक्स-ए-ग़म-ए-यार आज की रात ग़म-ए-दौरां=शोक का समय; अक्स-ए-ग़म-ए-यार=प्रेमी के शोक की छवि आतिश-ए-गुल को दामन से हवा देती है दीदनी है रविश-ए-मौज-ए-बहार आज की रात आतिश-ए-गुल=फूल की आग; दीदनी=देखने योग्य; रविश=व्यवहार; मौज=लहर आज की रात का महमां है मलबूस-ए-हरीर इस चमन-ज़ार में उगते हैं शरर आज की रात मलबूस-ए-हरीर=रेशमी कपड़ा; चमन-ज़ार=वाटिका; शरर=अंगारा मैं ने फ़रहद की आग़ोश में शीरीं देखी मैं ने परवेज़ को देख सर-ए-दार आज की रात आग़ोश=आलिंगन; सर-ए-दार=प्राणदण्ड की जगह जो चमन सर्फ़-ए-ख़िज़ां हैं वो बुलाते हैं मुझे मुझे फ़ुर्सत नहीं ऐ जान-ए-बहार आज की रात सर्फ़-ए-ख़िज़ां=पतझड़ की पकड़ में दर-ए-यज़दां पे भी झुकती नहीं इस वक्त जबीं मुझ से आँखें न लड़ा आज की रात दर-ए-यज़दां=दयालु भगवान; जबीं=मस्तक मशाल-ए-शेर का लाया हूँ चढ़ावा ‘आबिद‘ जगमागाते हैं शहीदों के मज़ार आज की रात
दीप तुम भी जलाओ, हम भी जलायेंगे मुस्कुराओ तुम भी, हम भी मुस्करायेंगे गरीब हो तो क्या, त्यौहार भी तो हैं हमारे पास मिठाई हैं, मिल बाँटकर खाएंगे शाम कितनी हसीं हो जायेगी उस वक़्त जिस लम्हे तुम और हम दीवाली मनाएंगे हैं ये त्यौहार सबको ख़ुशी देने का दोस्त तुम बनाओ, हम भी बनाएंगे हुई मुद्दत के तू उदास ही बैठा हैं तेरे हिस्से की ख़ुशी हम मांगकर लाएंगे किसी ने कहा लिख दो कुछ दीवाली पर हमने कहा, हम कलम जरूर चलाएंगे ढाल दिया ग़ज़ल को सूरत-ऐ-दीवाली में इस ग़ज़ल से तुमको हम बेहद याद आएंगे मिलना तो सबसे ख़ुशी के साथ तुम तुमसे भी सब दोस्ती का हाथ बढ़ाएँगे 'तारिक़' वादा था, पिछले बरस मिलने का इस साल भी उनकी राह देखते रह जाएंगे
बुझते हुओ को संभाला जा रहा हैं दीये में अब घी को डाला जा रहा हैं जो जमीं फ़क़त हैं चश्मे-मुश्के-गुबार चर्चे हैं वहां सोना निकाला जा रहा हैं जवाँ होंगे शज़र ताक़त से भी अब कमज़र्फ़ को फोलाद में ढाला जा रहा हैं उर्दू को चोट, जख्मी तू भी ऐ हिंदी कैसा सियासी सिक्का उछाला जा रहा हैं मय्यत पर याक़ूब की लिख ही देते लो सच्चाई पर चलने वाला जा रहा हैं तुझे खबर नहीं हमे खाक समझने वाले घर हमारे फिर शेरो को पाला जा रहा है ऐब-ओ-नाहुकूके-फन नहीं तारिक़ सियासत में कैसा ग़िज़ाला जा रहा हैं
मै ऐब ओ हुनर छुपाता फिरता हूँ कुऐ यार में ठोकरे खाता फिरता हूँ जो दुसरे लोगो को बताते हैं औकात मैं उनकी औकात बताता फिरता हूँ हक़ीक़त में ना हो अगरचे हो वजूद ख्वाब सर्फ़ मिज़्गाँ सजाता फिरता हूँ जो सौदा करते नफरतो के मयार में उनकी हयात की कीमत लगाता फिरता हूँ मालूम हैं मय करती जिंदगी मुख़्तसर इससे अपना दिल जलाता फिरता हूँ तड़पा कलम भी शबे तारिके तन्हाई में लिखते हुए भी अश्क़ बहाता फिरता हूँ

Aakhiri Baar Tera Aashiyana

आखिरी बार तेरा आशियाना देख रहा हूँ, मुहब्बत का खत्म ये फ़साना देख रहा हूँ! तेरी यादे ही मिट जाए इस तरह से, सामने अपने एक मैख़ाना देख रहा हूँ! बड़ी जालिम दुनिया हैं जुदा कर दिया हमे. मुहब्बत में दुश्मन ज़माना देख रहा हूँ! ये कुछ मुलाकाते जिंदगी का रहेंगी आईना, थोड़ी सी हँसी में जिंदगी को पैमाना देख रहा हूँ! तारुफ़ हुआ नहीं की जुदाई चली आई, उस तरफ भी ख़ामोशी से रोना देख रहा हूँ! दिल दुश्मन हुआ, आँख है यारे दीदार की तलबगार, इस घनी तन्हाई में आँखों को सुलाना देख रहा हूँ! राख भी ना हुए हम और जल भी गए इश्क़ में, उस सितमगर का मैं जलाना देख रहा हूँ! मैंने भी दिल लगाया, दर्द मिला है बेसबब, चेहरे पर उदासियो का आना जाना देख रहा हु! मिले जब राह में पूछा कौन हैं जिंदगी तुम्हारी, नज़रे मुझसे चुराना, दिल और किसी से लगाना देख रहा हूँ! गम जरूर होगा की मिले नहीं रुखसती पर, इसलिए आखिरी बार तेरा आशियाना देख रहा हु ! 2014 ℃ Copyright

जॉन अलिया

जौन एलिया दिल्ली की एक कंपनी में बिना रेज्यूमे लिए इंटरव्यू देने पहुंच गए, फिर उसके बाद क्या हुआ, पढिए. एचआर- Tell me about yourself. जौन एलिया- तुम कौन हो यह ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम मैं कौन हूं, यह ख़ुद भी नहीं जानता हूं मैं एचआर- O.k But at least tell me your name. जौन एलिया- मैं जो हूं जौन एलिया हूं जनाब इसका बेहद लिहाज कीजिएगा एचआर- Fine, Tell me, how was your day? जॉन एलिया- आज का दिन भी ऐश से गुज़रा सर से पा तक बदन सलामत है एचआर- O.k, How much do you know about this city? जौन एलिया- शहर आबाद करके शहर के लोग अपने अंदर बिखरते जाते हैं एचआर- It’s negative observation, By the way, Whats about your skills. जौन एलिया- एक ही फन तो हमने सीखा है, जिस से मिलिए उसे खफा कीजै एचआर- It’s not good skill, As your friend told me, You shouted at your boss. Why ? जौन एलिया- सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई क्यूं चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई एचआर- I understand it. But what did you say to him ? जौन एलिया- तिरे ग़रूर का हुलिया बिगाड़ डालूंगा मैं आज तिरा गिरेबान फाड़ डालूंगा एच

गुलजार साहब।

जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन ब-रंजिश..... बेहाल-ए -हिजरा बेचारा दिल है सुनाई देती है जिसकी धड़कन , तुम्हारा दिल या हमारा दिल है.. गुलज़ार साहब का लिखा फ़िल्म गुलामी का ये गीत अधिकांश लोगों के समझ नहीं आने के बावजूद खूब चला। एक मुलाकात में स्वयं गुलज़ार साहब इसकी हकीकत छुपा ले गए थे, यह कहकर कि धुन के लिए कुछ फारसी शब्दों का सहारा लिया बस...। आइए, जानते हैं इस गाने के सृजित होने की हकीकत... ***** इस गीत के शुरुआती बोल फ़ारसी के हैं ...और गुलज़ार ने इसे बेहद खूबसूरती से अमीर खुसरो के एक सूफ़ी गीत से उड़ाया है.... ज़िहाल- ध्यान देना/गौर फ़रमाना मिस्कीं- गरीब मकुन- नहीं हिज्र- जुदाई ( मुझे रंजिश से भरी इन निगाहों से ना देखो क्योकि मेरा बेचारा दिल जुदाई के मारे यूँही बेहाल है.... जिस दिल कि धड़कन तुम सुन रहे हो वो तुम्हारा या मेरा ही दिल है ) खुसरो का वह गीत जिससे गुलज़ार को प्रेरणा मिली थी ...उसकी खासियत यह थी कि इसकी पहली पंक्ति फ़ारसी में थी जबकि दूसरी पंक्ति ब्रज भाषा में.... फ़िल्म के गीत की तर्ज पर ही खुसरो के इस गीत को भी पढ़ें.... गजब के शब्द.. कमाल की शब्दों की जादूगरी.... ज़ि

बजट 2018

कैसा बना रहे हो बजट का आधार साहब जी, अमीर मजे में, गरीबो पर अत्याचार साहब जी! रोता भी हूँ, कभी मन ही मन में हंस पडता हूँ, ख़ुशी का मुझसे नहीं हो रहा इज़हार साहब जी!