तेरी नफरत में उजड़ने को जी चाहता है
मत पुछ मेरा जी क्या क्या चाहता हैं
इन गमो के लम्हों से हैं मौत बेहतर
अब तो मेरा मर मिटने को जी चाहता है
दिल हैं बैचैन आज , क्या करू इसका
शायद ये पागल तेरे दीदार को जी चाहता है
कम से कम वो छूले इसी तरह मुझको
हाथो का उसके थप्पड़ खाने को जी चाहता है
तमाशा हुआ अपना , बर्बादी देख चुके बहुत
आफ़ताबे मानिंद डूब जाने को जी चाहता है
शबे तन्हाई की सेहर तो हो कही चलकर
इस वीराने दरिया में कश्ती मोड़ने को जी चाहता हैं
तू ही बसा करता हैं, हर रात खवाबो में
मेरा भी तेरे खवाबो में आने को जी चाहता हैं
नहीं उठती तलवार गर दुश्मन हो हक़ पर
ऐसी जंग में मेरा हार जाने को जी चाहता हैं
जिसकी मंज़िल तुम हो, सफ़र में ना सही "तारिक़"
मेरा भी ऐसी किसी राह पर चलने को जी चाहता हैं।
2014 Copyright
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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