Skip to main content

Posts

Showing posts from 2018

मज़बूरी में

मज़बूरी में बे-आबरू होके चमन से निकल जाती हैं, पैसे के लिए कोई कली पैराहन से निकल जाती हैं! मेरे  हमदम  तेरे  चेहरे  की  तासीर  ही  कुछ  ऐसी हैं, मुझे जो बात कहनी होती हैं जेहन से निकल जाती हैं! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

चमनज़ार तुम्हारे ही

चमनज़ार तुम्हारे ही तबस्सुम से शादाब होते हैं, देखके तुम्हें लगता हैं हँसने के भी आदाब होते हैं! सुबहे-दम मशगूल रहती है कुदरत भी इबादत में, कलिया सज़दे करती हैं शज़र के आदाब होते हैं Tariq Azeem Tanha

इश्क़ करती हो।

छिपकर शायरी पढ़ती हो, यक़ीनन इश्क़ करती हो! बाम पर आती हो क्यो, किसके लिए संवरती हो! क्लास में और भी सब हैं, मुझे क्यो देखा करती हो! लिखा मगर जाता नही, कोशिश बहुत करती हो! बस गयी हो इन आंखों में, मेरे ही घर में रहती हो! जां छिड़कते हैं तुमपे सब, तुम किसपे छिड़कती हो! कहती भी नही इश्क़ नही! और हाँ भी नही करती हो! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

नशा ए मुहब्बत

यादे तेरी सताती हैं हर पल और तेरे अत्याचार में हूँ फिर से कब जुल्म होगा मुझ पर बस इस इंतेज़ार हूँ, पिया करता हुँ इस तरह से मुहब्बत की शराब मैं, पहले मुहब्बत का नशा था अब बेवफाई के खुमार में हूँ! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

तआल्लुक़ इतना तो था।

मुहब्बत ना थी मगर ताआल्लुक़ इतना तो था, हँसकर कभी हमसे बात वो करता तो था! मेरी जान था वो, मैं उसे सितमगर नही कहता, और ये भी बात सच के वो बेवफा तो था, ये बात और के अब ताल्लुक़ भी नही उससे, वरना इक वक्त पहले उससे कोई रिश्ता तो था! मैं उसे दिल का रहजन कह दूं नही मुमकिन, मुहब्बत के सफर में वो कुछ दूर चला तो था! दिल की क़ुर्बत में रहा, राज़-ओ-सुखन ले गया, दिल के बहुत करीब से 'तनहा' गुज़रा तो था! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

Na मालूम

मेरे जुनु का नतीजा ज़रूर निकलेगा इसी सियाह समुन्दर से नूर निकलेगा गिरा दिया है जो साहिल पर इंतज़ार ना कर अगर वो डूब गया तो दूर निकलेगा उसी का सहर वही मुद्दई वही मुंसिफ हमें यकींन था हमारा कसूर निकलेगा यकींन न आये तो एक बार पूछ कर तो देखो जो है रहा है वो जख्मो से चूर निकलेगा

उम्र गुज़र जाती हैं

उम्र   गुज़र जाती  हैं सँवरने में, जिंदगी में  कुछ  नया करने में! कहाँ  हैं  वो मज़ा जीने में यारो, जो  लुत्फ़  हैं  वतन पे मरने में! शायरी लिखना कोई खेल नही, उम्र  बीत  जाती हैं निखरने में! कारस्तानी भी मालूम पड़ती हैं, नशा  चढ़ने में, नशा उतरने में! 'तन्हा'  करता हैं अदा से कत्ल, मज़ा आता हैं धीरे धीरे मरने में! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

जवाब हैं वो।

क्या तुम्हे बताऊँ के कितना लाजवाब हैं वो, मेरे हर सवाल का आखिर जवाब हैं वो! यूँ तो सभी चीज़े ख़्वाब में रक़्स करती हैं, पर जो मयस्सर नही मुझे ऐसा ख़्वाब हैं वो! उसे देखता हूँ तो मदहोशी छाने लगती हैं, कदम बहकने लगते हैं ऐसी शराब हैं वो! वो ना मिलेगा फिर भी हैं उसी की जुस्तुजू, ना जाने मेरे लिए कैसा इंतिखाब हैं वो! उसके जज़्बात हैं पेचीदा मगर सादगी भरे हुए, और 'तनहा' कहता हैं खुली किताब हैं वो! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

Na Aana Behtar Tha

ज़माने के रंगों से उतर जाना बेहतर था, जिंदा  रहने से  तो मर जाना बेहतर था! अब जाते हुए तुम दिल तोड़कर जाते हो, ऐसे आने से तो तेरा ना आना बेहतर था! tariq azeem tanha

Ulfat me insa'n

उल्फत में इंसा खुद अपना रहजन होवे। कमरे में अँधेरा कर इनकी तन्हाई रौशन होवे। रस्मे-दुनिया हैं की कोई खुश तो कोई नाशाद हो, उठ जाए जब महफ़िल तो तन्हाई आबाद हो। Tariq azeem tanha

इमरोज़ टुकड़ा

इमरोज़ टुकड़ा टुकड़ा हुआ हूँ मुहब्बत में, आईना हुआ करता था अभी कल की बात हैं! गुज़र रही हैं मेरी जिंदगी अब सहारे शराब के, पारसा हुआ करता था अभी कल की बात हैं! तारिक़ अज़ीम तन्हा

बारिशे

बारिशें  गर्दिशों  में हैं लेकिन दामन मेरा, भीग  गया  हैं फिर  मेरे आँसुओ से  ही!                                                तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

रविश का लेख

रवीश का लेखः औरंगज़ेब जिसने आखिरी वक्त में कहा था ‘मैं अजनबी की तरह आया और अजनबी की तरह जा रहा हूं। औरंगज़ेब और आरक्षण। इससे ज़्यादा लिखने की कोई ज़रूरत नहीं है। इन दो शब्दों को देखते ही पढ़ने वाले के दिमाग़ में जो भ्रांतियां मौजूद हैं वो बाहर आने लगती हैं। लोगों के मन में भ्रांतियों के अलावा कई जानकारियां भी सही हैं मगर उसके अलावा कुछ नया जानने की ज़रूर महसूस नहीं करते हैं। ऐसे लोगों का दिमाग़ औरंगज़ेब लिखा देखते ही अपने भीतर मौजूद छवियों को ज़हन के जहान में संदेश प्रसारित करने लगता है। जो अलग-अलग माध्यमों से गढ़ी जा रही छवियों के आधार पर उनके भीतर बनता चला आ रहा है। मसलन आप को लाल रंग के चाहे जितने रुप दिखाए जाएं,आप उनकी पहचान या तो ग़ुलाब से करेंगे या कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे से या फिर ख़ून से। हम सबका दिमाग़ लाल को किसी और रूप पहचानने का प्रयास ही नहीं करता है। ऐसे लोगों के लिए Audrey Thruschke ने Aurangzeb,The Man and They Myth किताब लिख कर जो कोशिश की है, वह कितनी सफ़ल होगी, कहना मुश्किल है। पेंग्विन प्रकाशन से छपी 399 रुपये की यह किताब उन लोगों के लिए भी जो यह समझते हैं कि और

नज़र से मारिए

उठाकर के पलके तिरछी नज़र से मारिए, आईनासाज़ हैं 'तनहा' उसे पत्थर से मारिए! बता दीजिये कैसे उसकी बेटी को लूटा, बताकर उसकी माँ को इस खबर से मारिए! ये हैं तरीका उसको बर्बाद करने का, उसके ही अक्स को उसके घर से मारिए! एक बार में कर दीजिये हमे दफ्नो-क़त्ल आप, रोज़ यूँ ना तंज करके इधर-उधर से मारिए। संस्कृति-ओ-आसिफा थी इज़्ज़त-ए-चमन, हवस में ना इनको गुलशने-दहर से मारिए! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

Eid Mubarak

दूर अपने वतन से, माँ की नज़र से दूर ईद कैसी, परदेसी की ईद क्या, घर से दूर ईद कैसी! हम ना जा सके, करीब वो भी ना आ सके, तवीले-सफ़रे-चाँदे-दिलबर से दूर ईद कैसी! मंज़िल ही ईद हैं, ये रास्ते हैं चाँदरात जिंदगी में, भला इंसान की जिंदगी में सफ़र से दूर ईद कैसी! गुज़रे हुए सालो में गुज़री दोस्तों के साथ अच्छी, आज अहबाबे-लालो-गौहर से दूर ईद कैसी! माँ रोई फोन पे कहते हुए की 'तनहा' तेरे बिन, हर शै बे-मज़ा, टुकडा-ए-जिगर से दूर ईद कैसी! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

तक़ल्लुफ़

अंदर ही मकाँ के उसने मुझे रुखसत कर दिया! छोड़ने  का उसने  दर पे  तक़ल्लुफ़ नहीं किया, तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

हर अपने सितम से मुझको

हर अपने सितम से मुझको दो-चार कर गया, नीलाम उल्फत में मुझे मेरा यार कर गया! मुफ़लिसी में कहाँ जोर बनाये वो ताज को, एक शाह हम ग़रीबो को शर्म-सार कर गया! अपनी अज़मत को झुकाया ना उसने कभी सर, लहजा ये उसका, उसको खुद्दार कर गया! ख़याल उसका आया था ज़हन में फिर, धीरे से आँसुओ की चलती कतार कर गया! 'तनहा' तुम तो लिखते हुए रोते भी बहुत हो, हर एक शेर तेरा तुझको बेज़ार कर गया! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

मैं खुद ही अपनी मंज़िल हूँ....

मैं  खुद ही अपनी मंज़िल हूँ, और सफ़र भी मेरा मुझमे हैं! मैं कभी अकेले चलता नहीं हूँ, हमसफ़र भी मेरा मुझमे हैं! मैं  एक  महफ़िल  हूँ चलती फिरती, शोर शराबा मुझमे हैं, एक ख़ामोशी हूँ  तन्हाई जैसी और दहर भी मेरा मुझमे हैं! खाना सबको खिलाता हूँ, कभी खून की नदिया बहाता हूँ, मैं हूँ  रहम दिल  कभी  बातिल हर बशर भी मेरा मुझमे हैं! मैं  जिसको  चाहे जैसा  देखूँ,  मेरी  मर्जी  हैं मैं वैसा देखूँ, आँखे  मेरी  अपनी अपनी हैं और नज़र भी मेरा मुझमे हैं! मैं  गूँगा  हूँ  और  'तनहा'  हूँ, बस डायरी में लिख लेता हूँ, जब कलम चले तो जमाना डरे सुखनवर भी मेरा मुझमे हैं! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

तन्हाई

उल्फत में इंसा खुद अपना रहजन होवे। कमरे में अँधेरा कर इनकी तन्हाई रौशन होवे। रस्मे-दुनिया हैं की कोई खुश तो कोई नाशाद हो, उठ जाए जब महफ़िल तो तन्हाई आबाद हो। तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

सहने लगते हैं।

दुःख जब भी तेरा हम सहने लगते हैं, फिर इक नई ग़ज़ल हम कहने लगते हैं! जिन्दा दिली जब मर जाती हैं इंसा में, उदास फिर वो सरे-शाम रहने लगते हैं! जिस शब में उसकी याद आती हैं फिर, खून के अश्क़ आँखों से बहने लगते हैं! इश्क़ के दर्दे-जेवर से अमीर हो जाए, जिस आशिक़ के हाथ ये गहने लगते हैं! 'तनहा' अंदर का शायर चीख उठता हैं, कलम से जब हम चुप रहने लगते हैं! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

मक़ाम लिख दिया।

मन्ज़िललिखी,मेहनत लिखी,मक़ाम लिखदिया, जिंदगी की शोहरत का इंतज़ाम लिख दिया! फिर कहाँ वो धरते फिरते किसी के सर क़त्ल, लोगो ने मेरे सर ही कत्ले-इल्ज़ाम लिख दिया! खुद तू तो सोये चैन से, मैं दर-ब-दर फिरू, क्यों तुमने मेरे हिस्से दर-ओ-बाम लिख दिया! हाय! कहर से मयखाना उठाने लगे रिन्द भी, साक़ी ने अपने होंठो का मुझे जाम लिख दिया! जिंदगी तो क्या हैं एक जुस्तुजू हैं मंज़िल की, और जिंदगी का मौत ही मकाम लिख दिया! हमनेजबभी तेरेअक्स-ओ-तसव्वुर पे बात की, तेरी दिलफरेब अदा को सरे-शाम लिख दिया! जन्नत भी उसके कदमो को चूमते आई थी, हमने जब भी माँ के लिए कलाम लिख दिया! ता-उम्र ना जमाना सितमगर को भूल पायेगा, 'तनहा' ने लहू जो उसका नाम लिखा दिया! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

जब मेरी याद आ रही होगी।

जब मेरी याद आ रही होगी, अक्स फिर मेरा बना रही होगी! इतना कहर ढाती हैं की मर जाऊ, जब वो बिंदिया लगा रही होगी! क्लास में कुछ दूर बैठकर के वो, मुझसे नज़रे मिला रही होगी! मुझसे एक शेर ना हुआ अब तक, और वो ग़ज़ल नज़र आ रह होगी! दुनिया एक दम से रुक गयी होगी, जब वो चिलमन हटा रही होगी! 'तनहा' तुम तो बहुत जालिम हो, और वो अच्छा बता रही होगी! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

पागल हो गया हूँ

शहर सा था कभी अब जंगल हो गया हूँ, खुशकिस्मती देखिये की पागल हो गया हूँ! गज़ले-मुमताज़ दफ़न हैं दिल की इमारत में, शहज़ादा शाहजहाँ का ताजमहल हो गया हूँ! गीत, ग़ज़लो से सभी पर प्यार लुटाता हूँ, खुशबू बिखेरता एक संदल हो गया हूँ! अपना मयार बढ़ाओ गर समझना हैं मुझे, पागल तुम भी बनो, मैं तो पागल हो गया हूँ! हमने तेरी जुदाई को हैं अपने फन में ढाला, कभी गीत लिखे, तो कभी ग़ज़ल हो गया हूँ! कभी हम दोनो भाई साथ-साथ रहते थे, दस्तार की वजह से अदल-बदल हो गया हूँ! कभी मेरी भी शानो-शौकत की झोपडी थी, 'तनहा' जब से हूँ, उजड़ा महल हो गया हूँ! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

मेरी भी शानो-शौकत की झोंपडी थी।

शहर सा था कभी अब जंगल हो गया हूँ, खुशकिस्मती देखिये की पागल हो गया हूँ! गज़ले-मुमताज़ दफ़न हैं दिल की इमारत में, शहज़ादा शाहजहाँ का ताजमहल हो गया हूँ! गीत, ग़ज़लो से सभी पर प्यार लुटाता हूँ, खुशबू बिखेरता एक संदल हो गया हूँ! अपना मयार बढ़ाओ गर समझना हैं मुझे, पागल तुम भी बनो, मैं तो पागल हो गया हूँ! हमने तेरी जुदाई को हैं अपने फन में ढाला, कभी गीत लिखे, तो कभी ग़ज़ल हो गया हूँ! कभी हम दोनो भाई साथ-साथ रहते थे, दस्तार की वजह से अदल-बदल हो गया हूँ! कभी मेरी भी शानो-शौकत की झोपडी थी, 'तनहा' जब से हूँ, उजड़ा महल हो गया हूँ! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

आली जनाब

जिगर पे फिर चोट खाना हो गया हैं, फिर दिल उनका निशाना हो गया हैं। मेरे सर झूठ मँढ़ने लगे वो कमबख्त, घर में एक बातिल-खाना हो गया हैं! अब जिंदगी का हैं यही मेरे मकसद, कातिलो को जिन्दा दफनाना हो गया! जाहिलो को अपने खून से मैं जला दूँ, मेरा खून इतना गर्माना हो गया हैं! सुनू हूँ बात तो कानो पे हाथ धरु हूँ, कितना झूठा अब ज़माना हो गया हैं! एक पे एक बोलते रहते नया झूठ, बातो का उनकी कारखाना हो गया हैं! अब मैं जरा आसमाँ पे क्या चमका, मेरा सर उनका निशाना हो गया हैं! तू करे झगडा तो फिर सुनले तुझको, लाजिम जाहिल बताना हो गया हैं! अक्सर मेरा पीछा किया करते हैं वो, कहाँ-कहाँ आना-जाना हो गया हैं! कातिलो की ये ओछी मिसाल हैं के, गले तक मेरे हाथ आना हो गया हैं! बे-वजह तोहमते लगायी लड़की पर, गले को उसके दबाना हो गया हैं! साक़ी जहाँ बैठा छलका वहीं जाम, चलता फिरता मयखाना हो गया हैं! 'तनहा' जिक्र जब छिड़ा महफ़िल, आँखों से अश्क़ रवाना हो गया हैं। सुनू हक़ की तनहा जब कभी मैं, सोचूँ कमबख्त जमाना हो गया हैं! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

यादो के आईने

यादो    के   आईने   में  तुझे   सुबहो-शाम  देखूँ, कहकर   तेरे  तस्सवुर   पे  मैं  भी  कलाम  देखूँ। घर    से    निकलके रोज़   जाता  हूँ   मैं  किधर, पीछा  अपना  करके वो मंज़िल-ओ-मकाम देखूँ। लबरेज़  हैं   ये   खातिर तेरे उफ़क-ए-सितम से, और  अहले-कालिब  को छलनी सरे-शाम देखूँ। तू  नज़र  तो  आ ऐ जाँ, ये मेरे दिल की हैं फुगाँ, तुझे  देखने  को जालिम  तेरा दर-ओ-बाम देखूँ। ये  जो आराइशे-ग़म हैं, ये हैं जमाले-इश्क़ यारो, तुम  मेरी  गिरिया   देखो,  मैं इश्के-अंजाम देखूँ। दौरे-हाज़िर  में  'तनहा', ये  हैं जीने  का सलीक़ा, तुम  अपना  काम   देखो, मैं  अपना  काम देखूँ। तारिक़ अज़ीम 'तनहा'