शहर सा था कभी अब जंगल हो गया हूँ,
खुशकिस्मती देखिये की पागल हो गया हूँ!
गज़ले-मुमताज़ दफ़न हैं दिल की इमारत में,
शहज़ादा शाहजहाँ का ताजमहल हो गया हूँ!
गीत, ग़ज़लो से सभी पर प्यार लुटाता हूँ,
खुशबू बिखेरता एक संदल हो गया हूँ!
अपना मयार बढ़ाओ गर समझना हैं मुझे,
पागल तुम भी बनो, मैं तो पागल हो गया हूँ!
हमने तेरी जुदाई को हैं अपने फन में ढाला,
कभी गीत लिखे, तो कभी ग़ज़ल हो गया हूँ!
कभी हम दोनो भाई साथ-साथ रहते थे,
दस्तार की वजह से अदल-बदल हो गया हूँ!
कभी मेरी भी शानो-शौकत की झोपडी थी,
'तनहा' जब से हूँ, उजड़ा महल हो गया हूँ!
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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