Skip to main content

Posts

Showing posts from 2020

सारा शगुफ्ता Sara Shagufta

आज सारा शगुफ़्ता की विलादत का दिन है गुजरांवाला में पैदा हुयीं उन्हें पढ़ने लिखने का ख़ूब शौक़ था लेकिन इसके बावजूद मैट्रिक भी पास न कर सकीं उनकी सौतेली मां और  तीन मजीद शादियां जिनमें 2 शौहर शायर थे इन्हें ज़हनी अज़ीयत से मुब्तला कर दिया गया सारा लिखती हैं एक शाम शायर साहब ने कहा आप से ज़रूरी बात करनी है फिर एक रोज़ रेस्टोरेंट में मुलाक़ात हुई उसने कहा शादी करोगी दूसरी मुलाक़ात में शादी तय हो गयी अब काज़ी के लिए पैसे नहीं थे मैने कहा आधी फ़ीस तुम क़र्ज़ ले लो और आधी में चूंकि घर वाले शरीक़ नहीं होंगे मेरी तरफ़ से गवाह भी लेते आना एक दोस्त से मैने उधार कपड़े मांगे और मुकर्रर जगह पर पहुंची और निकाह हो गया काज़ी साहब ने फ़ीस के अलावा मिठाई का डब्बा भी मंगवा लिया तो हमारे पास कुल छ: रुपए बचे में लालटेन की रोशनी में घूंघट काढ़े बैठी थी शायर ने कहा दो रुपए होंगे बाहिर मेरे दोस्त ग़ैर किराए के बैठे होंगे मैने दो रुपए दे दिए और फिर कहा हमारे यहां बीवी नौकरी नहीं करती नौकरी से भी हाथ धोए घर में रोज़ तरीन याफ्ता शायर और नक़्क़ाद आए और एलियट की तरह बोलते और कम अज़ कम मेरे ख़मीर में इल्म की वहशत

Sahir Ludhiyanavi साहिर लुधियानवी

आज मेरे पसंदीदा गीतकार साहिर साहब की पुण्यतिथि है , साहिर वाक़ई क़लम के साहिर थे वैसे उन्होंने कई नग़्में दिए पर अगर सिर्फ़ में  दो गीत कहूं "तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा जिसे रफ़ी साहब ने स्वर दिया है और दूसरा औरत की पीड़ा को उन्होंने जिस तरह 50 के दशक में बयां किया है औरत ने जन्म दिया मर्दों को" ये दिए होते तो भी साहिर मेरे पसंदीदा गीतकार होते ! चलो फिर अजनबी बन जाएं ,तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएं,हम ने सुना था एक है भारत ,वो सुबह कभी तो आएगी, ऐसे गीत या उनके द्वारा कहे गए भजन ईश्वर अल्लाह तेरो नाम या 60 के दशक में कहे गए भजन मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय इस तरह के भजन मुझे बहुत पसंद हैं या नज़्म परछाइयां  रोमांटिक शायर होने के साथ उन्होंने संजीदा शायरी भी की "कि कौन रोता है किसी और की खातिर ए दोस्त ,सबको अपनी ही किसी बात पे राना आ गया " इन्क़लाब भी उनके अंदर झलकता है 'हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ , गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सहीह'              जागीरदार का बेटा बचपन में पिता के साथ समझौता किया और मां के साथ रहन

Bahadur Shah Zafar

जिस वक़्त दिल्ली की शायरी उरूज पर थी जब नवाब मुस्तफा ख़ां शेफ्ता कह रहे थे "शायद इसी का नाम मोहब्बत है 'शेफ़्ता' इक आग सी है सीने के अंदर लगी हुई" या शेख़ इब्राहिम ज़ौक़ कह रहे थे 'रहता सुखन से नाम क़यामत तलक है ज़ौक़ ,औलाद से रहे यही दो पुश्त चार पुश्त' और ग़ालिब कह रहे थे बस आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना' या शौक़ हर रंग रकीब ए सर ओ सामां निकला और दाग़ कह रहे थे 'कम नसीबी इस को कहते हैं कि मेरे वार पर, दश्त ए साक़ी से इधर शीशा उधर साग़र गिरा दिल्ली के बारे में कभी मीर ने भी कहा था था "दिल्ली के न थे कूचे थे औराक़-ए-मुसव्वर थे जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई जंग ए आज़ादी के वक़्त आख़िरी मुग़ल बादशाह अपने वतन से बिछड़ने पर रंगून की जेल में भीत पर लिख रहा था "बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में" आज उन्हीं बहादुर शाह ज़फ़र की यौम ए विलादत है  1857 में जब हिंदुस्तान की आजादी की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-

रंगो का पर्व-होली...

सबको रंग लगाओ के होली आ गयी, कैलाश को सजाओ के होली आ गयी! भीगा दो आज सबका तन-मन रंग से, गुलाल लेकर आओ के होली आ गयी! जो आज भी रो रहा कोने में   बैठकर, उसे भी गले लगाओ के होली आ गयी! गिले-शिकवे की जगह ना हो दिल में, फ़र्क़ यही मिटाओ के होली आ गयी! मिसाल कायम हो जाए मिठास की, मिठाईया खिलाओ के होली आ गयी! इस बार होली पे मैं अकेला नहीं हूँ, 'तनहा' ना बताओ के होली आ गयी! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

जो राज़ गहरे

जो राज़ गहरे दबाके बैठो हो उन्हें बता दूं तो क्या करोगे, सितम के किस्से जो सरे-महफ़िल मैं सुना दूँ तो क्या करोगे! हसद की बातें, दिलों में नफ़रत, रहेगी कब तक, चलेगा कब तक, उल्फ़त शम्मा दिलों में सबके जो मैं जला दूँ तो क्या करोगे! वफ़ा की बातें, मुहब्बत के किस्से न सुनाओ तुम ही तो है बेहतर जो लैपटॉप में है एक तस्वीर गर तुम्हें दिखा दूँ तो क्या करोगे! हुक़ूमत पे तबसिरे, करोगे कब तक ऐ लोगो तुम बोझ बनकर, मैं इंकिलाब की आमद तुम्हारें हाथों में गर थमा दूँ तो क्या करोगे। वर्दी-ओ-बन्दूक मासूमों पर जो तुम चलाते हो तो मेरी भी सुन लो, हुक़ूमत का बागी, 'तनहा' सो रहा है, जो उसे जगा दूँ तो क्या करोगे।