जिस वक़्त दिल्ली की शायरी उरूज पर थी जब नवाब मुस्तफा ख़ां शेफ्ता कह रहे थे "शायद इसी का नाम मोहब्बत है 'शेफ़्ता' इक आग सी है सीने के अंदर लगी हुई" या शेख़ इब्राहिम ज़ौक़ कह रहे थे 'रहता सुखन से नाम क़यामत तलक है ज़ौक़ ,औलाद से रहे यही दो पुश्त चार पुश्त' और ग़ालिब कह रहे थे बस आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना' या शौक़ हर रंग रकीब ए सर ओ सामां निकला और दाग़ कह रहे थे 'कम नसीबी इस को कहते हैं कि मेरे वार पर, दश्त ए साक़ी से इधर शीशा उधर साग़र गिरा दिल्ली के बारे में कभी मीर ने भी कहा था था "दिल्ली के न थे कूचे थे औराक़-ए-मुसव्वर थे जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई जंग ए आज़ादी के वक़्त आख़िरी मुग़ल बादशाह अपने वतन से बिछड़ने पर रंगून की जेल में भीत पर लिख रहा था "बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में" आज उन्हीं बहादुर शाह ज़फ़र की यौम ए विलादत है
1857 में जब हिंदुस्तान की आजादी की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट घोषित कर दिया और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी और भारतीय सैनिकों की बगावत को देख 82 वर्ष के बूढ़े बहादुर शाह ज़फ़र का भी गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने अंग्रेजों को हिंदुस्तान से खदेड़ने का आह्वान कर डाला। यही काम 80 वर्ष के वीर कुंवर सिंह बिहार में कर रहे थे
ये क़िस्सा तो आप सबने सुना है जब ज़फ़र और उसके पोते को हुमायूं के मकबरे से गिरफ़्तार किया जा रहा था तो एक अंग्रेज़ी अफ़सर जो भारत में रहकर उर्दू सीख गया था उसने कहा दमदमे में दम नहीं अब ख़ैर मांगो जान की (दमदम बंगाल में वो जगह है जहां भारतीय सेनाओं के हथियार रखे जाते थे क्यूं कि उस समय सेनाओं की गति विधियों का केंद्र बंगाल ही था) ए ज़फ़र ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की बहादुर शाह ज़फ़र जो ख़ुद संगीतकार थे ,सूफ़ी थे ,पंजाबी ज़बान इतनी आती थी कि उसमें आराम से शायरी कर सकते थे ,उर्दू के शायर उन्होंने भी पलट कर कह दिया गा़जियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग़ हिंदुस्तान की और उनका ये सपना ऊधम सिंह ने (जलियांवाला बाग कांड के समय पंजाब के गर्वनर जनरल रहे माइकल ओ' ड्वायर को लन्दन में जाकर गोली मारी) पूरा किया
अंग्रेजों ने जुल्म की सभी हदें पार कर दीं। जब बहादुर शाह ज़फ़र को भूख लगी तो अंग्रेज़ उनके सामने थाली में परोसकर उनके बेटों के सिर ले आए उस पर बहादुर शाह ने कहा हिंदुस्तान के बेटे देश के लिए सिर कुर्बान कर अपने बाप के पास इसी अंदाज में आया करते हैं। शायरी में ज़फ़र के उस्ताद ज़ौक़ थे ज़फ़र के बड़े बेटे मिर्ज़ा फ़ख़रू भी शायर थे ज़फ़र की 4 बीबियां थीं और कई रखेलें थीं जो उनकी देखभाल करती थीं पर ज़फ़र के जीवन के आख़िरी वक़्त उनकी बेगम ज़ीनत महल ने उनका साथ दिया और ज़ौक़ के शागिर्द ज़फ़र कहते हैं यदि हम ने अपने अहंकार का जो पर्दा है उसे हटा दिया तो हमारे और ख़ुदा के बीच में कोई भी बाधा उत्पन्न नहीं होगी और सीधा ईश्वर से हमारा संवाद होगा !
दिया अपनी ख़ुदी को जो हमनें उठा वो जो पर्दा सा था बीच में ना रहा
रहा पर्दे में अब ना वो पर्दा नशी कोई दूसरा उसी के सिवा ना रहा !
ना थी हाल की जब हमें ख़बर रहे देखते औरों के ऐब ओ हुनर
पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र तो निगाह में कोई बुरा ना रहा !
(बहादुर शाह ज़फ़र)
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