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Showing posts from April, 2018

ये नहीं हैं के सुनता नहीं हूँ मैं।

ये नहीं है के सुनता नहीं हूँ मैं, बस कुछ बोलता नहीं हूँ मैं हैं तुझमे लाख ख़ामियां पर, उनपे कुछ कहता नहीं हूँ मैं! जो आ रहा कुचलता जा रहा, देखके चलो, रस्ता नहीं हूँ मैं! खुदी से मिरी दुश्मनी हैं अब, खुदी की बात मानता नहीं हूँ मैं, छिपकर बैठी हैं ग़ज़ल मुझसे, सुन अभी आईना नही हूँ मैं मैं हूँ दर-दर ठोकर के काबिल, इतना ना चाह बा वफ़ा नहीं हूँ मैं! रोज़ कत्ल होकर हालातो से, जिन्दा हूँ, पर जिन्दा नहीं हु मैं! गलती मुँह पर गिना देता हूँ, बिलकुल भी अच्छा नहीं हूँ मैं ग़ज़ल तो लिख लेता हु मगर, ग़ज़ल कहीं कहता नहीं हूँ मैं! ग़ज़ल मेरे पास बैठी हैं और, 'तनहा' हूँ पर अकेला नहीं हूँ मैं तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

चांदनी का रंग।

काश ऐसा ही होता सबकी जिंदगी का रंग, जितना दिलकश हैं आज रौशनी का रंग! चाँद पुरजोर होके आसमाँ पर निकला, बिखर गया हैं जमाने में चांदनी का रंग!

आज की ग़ज़ल

ग़ज़ल की प्रचलित बहरें 1. बहरे कामिल मुसम्मन सालिम मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन 11212 11212 11212 11212 ये चमन ही अपना वुजूद है इसे छोड़ने की भी सोच मत नहीं तो बताएँगे कल को क्या यहाँ गुल न थे कि महक न थी ——————————————– 2. बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन 2122 1212 22 प्या ‘स’ को प्या ‘र’ करना था केवल एक अक्षर बदल न पाये हम ——————————————– 3. बहरे मज़ारिअ मुसम्मन मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़न्नक मक़्सूर मफ़ऊल फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन 221 2122 221 2122 जब जामवन्त गरजा, हनुमत में जोश जागा हमको जगाने वाला, लोरी सुना रहा है ——————————————– 4. बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ मुफ़ाइलुन फ़यलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन 1212 1122 1212 22 भुला दिया है जो तूने तो कुछ मलाल नहीं कई दिनों से मुझे भी तेरा ख़याल नहीं ——————————————– 5. बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़ मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईलु फ़ाइलुन 221 2121 1221 212 क़िस्मत को ये मिला तो मशक़्क़त को वो मिला इस को मिला ख़ज़ाना उसे चाभियाँ मिलीं ——————————————– 6. बहरे मुतकारिब मुसद्दस साल

बादे-नौ-बहार चली, आ गयी हैं अब होली

बाद-ए-नौ-बहार चली आ गयी हैं अब होली, खिली हैं हर एक कली आ गयी हैं अब होली सभी लोग मस्त हैं, अब नाचते हैं गाते हैं तुम भी झूमो अपनी गली आ गयी हैं अब होली रंग भी बिखरते हैं, बिखरते हैं ये जो कपड़ो पर, बढ़ती हैं मुहब्बत दिली आ गयी हैं अब होली पिचकारी-ओ-गुलाल, करते नारंग-ओ-सरसब्ज़, हिंद की सूरत इसमें मिली आ गयी हैं अब होली जानता हूँ मैं 'तनहा' नहीं हूँ अभी ग़ज़ल-गो मैं गीत बन फिर ग़ज़ल चली आ गयी हैं अब होली तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

तनहा

इश्क़ में हैं गुज़रे हम तेरे शहर से तनहा, महब्बत के उजड़े हुए घर से तनहा! हम वो हैं जो जीये जिंदगी भर से तनहा, और महशर में भी जायेंगे दहर से तनहा! तख़्लीक़े-शेर क्या बताऊ कितना गराँ हैं, होना पडे हर महफ़िल-ओ-दर से तनहा!! तुफानो-बर्क़ो-खारो-मौज़ो से निकलकर, हम निकले गुलशनो-दश्तो-बहर से तनहा! हम हैं वही जिसे कहता हैं ज़माना शायर, दुनिया में है मक़बूल हम नामाबर से ' तनहा' ! तार िक़ अज़ीम ' तनहा'

वज़ीरे-आज़म के लिए चार मिसरे।

एक मतला और एक शेर देखे। पैसे  को  खाने  के लिए तैयार मंत्री, तख़्त  पर बैठे है सब भ्रष्टाचार मंत्री, हाथो में हैं जिसके वतन की आबरू, वो प्रधानमंत्री नहीं वो हैं प्रचार मंत्री! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

साहब की हवाई सैर पर एक मतला और एक शेर देखे।

कू-ए-वतन  में  उड़न  तश्तरी  मोड़िये  ना, साहब विदेश  घूमने की  जिद छोड़िये  ना! इंसाफ दिलाके आसिफा की रूह को फिर, अनशन स्वाति  मालिवाल का  तोड़िए ना! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

जिंदगी की तल्खियों पर तारिक़ अज़ीम 'तनहा' का कलाम पढ़े।

सोज़िशे-दयार से निकल जाना चाहता हूँ, हयात से अदल में बदल जाना चाहता हूँ! तन्हाई ए उफ़ुक़ पे मिजगां को साथ लेके, मेहरो-माह के साथ चल जाना चाहता हूँ! आतिशे-ए-गुज़रगाह-ए-चमन से हटकर, खुनकी-ए-बहार में बदल जाना चाहता हूँ मैं हूँ खुर्शीद-ए-पीरी जवानी के सफ़र में, बहुत थक गया हूँ ढल जाना चाहता हूँ! मैं हूँ 'तनहा' शिकस्ता तन-ओ-जहन से, आशियाँ-ए-बाम पर टहल जाना चाहता हूँ! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

Kiran Kher Replies that Rape is an part of our culture

सब अहले-हिन्द उनकी बात पर गुस्सा हैं, आज छपा अखबार में जिनका किस्सा हैं! हम चाहे भी तो बदल  नहीं सकते इसको, वो कहते हैं  ज़िना तहज़ीब का हिस्सा हैं! ज़िना-Rape, तहज़ीब- Culture तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

मयस्सर कहाँ है....

मयस्सर कहाँ हैं सूरते-हमवार देखना, तमन्ना हैं दिल की बस एक बार देखना! किसी भी सूरत वो बख्शा ना जायेगा, गर्दन पे चलेगी हैवान के तलवार देखना! सज़ा ए मौत को जिनकी मुत्ताहिद हुए हैं हम, आ जायेगी उनको बचाने सरकार देखना! करो हो फ़क़त तुम गुलो की तारीफ बस, कभी तो गुलशन के भी तुम खार देखना। केमनी टी स्टाल पर यही करते है हम रोज़, चाय पीते रहना औ र तेरा इंतज़ार देखना। अपनी खुद्दारी 'तनहा' तू छोड़ेगा तो फिर, इसे आ जायेगा खरीदने बाज़ार देखना! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

अपने चेहरे पे।

अपने चेहरे पे जुल्फों को पड़ा रहने दो, रौशनी गर्दिशों में और अँधेरा रहने दो! चाँद खुद भी शर्मायेगा देखकर तुमको, कम से कम आँखों को ही खुला रहने दो मुझ दुश्मन से मिलो तो रौनक के साथ दिल में रखो हसद मगर रिश्ता रहने दो हैं जमाना मुन्तज़िर तेरे तीरे-नज़र को शौक़ गर्दिश में पड़ा हैं तो पड़ा रहने दो! बख्शो महफ़िल को वकार-ओ-ज़ीनत से, खुद तुम शम्अ रहो मुझे परवाना रहने दो तेरे कूचे से निकलकर भला जाए कहाँ, तवक्को वस्ल की हैं और आसरा रहने दो उम्मीद जगाओ न कोई ख्वाब दिखाओ, मैं तन्हाई में मुब्तिला हूँ 'तनहा' रहने दो! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

चाँद खूबसूरत...

देखो तो हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए, खबर नही अपनी हम वहाँ पहुँच गए! जहाँ कहीं उसका पता मिला था हमे, अंजुमन से उठकर वहां वहां पहुच गए! ताबीर ढूंढते-ढूंढते थककर टूट गए, फिर ख़्वाब अपने भी निहाँ पहुच गए! चाँद खूबसूरत रहेगा आखिर  कैसे, वहां भी जालिम ये इंसाँ पहुच गए! गुलशन जब भी आबाद करना चाहा, शादाब उसे करने बागबाँ पहुँच गए! जब भी 'तनहा' गुज़रा फाकाकशी से, उस रात उसके घर मेहमाँ पहुँच गए। तारिक़ अज़ीम 'तनहा'