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Showing posts from 2017

इतराती तो हैं।

अदा, शोखी, नज़ाकत पर वो इतराती तो हैं, हुस्न के जलवो से परीवश नज़र आती तो हैं। कौन इस तर्जे-कुव्वत पर कश्ती पे करे नज़र, कश्ती छोटी हैं मगर तूफान से टकराती तो हैं। तारिक़ अज़ीम तनहा

Mirza Ghalib मिर्ज़ा ग़ालिब

ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर को आगरा में एक सैनिक परिवार में हुआ था। उन्होने अपने अब्बा और चाचा को बचपन में ही खो दिया था, ग़ालिब का जिंदगी अपने चाचा की मिलने वाली पेंशन से होता था!। वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सेना में ऊँचे ओहदे पर थे) ग़ालिब की ताल्लुक़ एक तुर्क घर से था। और इनके दादा बीच एशिया के समरक़न्द से सन् 1740 के आसपास हिन्दुस्तान आए थे। उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आये। उन्होने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और आखिर में आगरा में बस गये। ग़ालिब ने एक बहुत बड़े उर्दू और फ़ारसी के जानकार की शागिर्दी में रहकर महज 11 साल की उम्र में ही अच्छे से फ़ारसी और उर्दू सीखी। फिर एक नवाब की लड़की से ग़ालिब का ब्याह कर दिया गया। और वो आकर फिर मीर कासिम जान गली मौहल्ला बल्लीमारान में रहने लगे थे, जो की चांदनी चौक के बेहद करीब हैं। शुरुवाती शेरी सफ़र में मिर्ज़ा ने अपना तखल्लुस 'असद' रखा था। पर उस वक़्त दूसरे किसी शायर का तखल्लुस भी असद ही था पर अपने ससुर के कहने पर इन्होंने अपना नाम 'ग़ालिब' रख लिया। ग़ालिब 11 साल की उम्र से फ़ारसी शेर कहन

मेरी जिंदगी के हक़ में ऐसी,....

मेरी जिन्दगी के हक़ में ऐसी सदा ना दे, तू मिले ना मौत भी आये ऐसी दुआ ना दे! मेरी दोस्ती आफताब से हैं मगर डर ये हैं, कहीं इसकी आतिश दामन को जला ना दे! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

مہتاب لئے شمشیر مجھے دھندہ رہا ہیں اب تک 'Mahtaab Liye Shamsheer Mujhe Dhundh Raha Hain ab tak ۔ ۔ n

महताब लिए शमशीर मुझे ढूंढ रहा हैं अब तक, बस मेरा जुर्म ये है मेरे घर जलता दीया हैं अब तक अब इस तंगमयकशी पर क्यों ना मर मिटे जमाना, पैमाने में शराब नहीं मगर होठों से लगा है अब तक! ये भी एक ख्याल हैं मेरा तेरी ख़याले-बेख्याली का, आशना है हम तेरे लिए या ना-आशना हैं अब तक उसने कई वादे फरेब किये, पर अब मैं समझा उसे, वो समझ रहा हैं की झूठ पर पर्दा पड़ा हैं अब तक! ना इज़्ज़ते-गदाया, ना हैं लफ़्फ़ाज़ी से कोई गुरेज़, बड़े ओहदे पर हैं मगर छोटो पे अड़ा हैं अब तक! वो तो राह-ए-कैफियते-मय-ए-नाब पर चल पड़ा, मिला जो मुझको कहा कैसे रहे पारसा अब तक! मैंने तो पत्थर तराशा था बहुत पहले पर ये क्या?, वो खुद ही जमाने का समझता खुदा हैं अब तक! طارق عظیم 'تنہا '

Koi Mujhme Aise Jaaga Kare Kyo..

कोई मुझमे ऐसे जागा करे क्यों, आँखों में क़याम किया करे क्यों! कोई रात भर रहे इन आँखों में, पलकों पर मेरी जला करे क्यों! रास हर जख्म हर दर का मुझे, बेबस जख्मो की दवा करे क्यों! वतन के दो आईने भी हैं एक, ऐसे आपस में लड़ा करे क्यों! जमाले-यार से रोशन हुआ घर, कोई रोशन फिर दीया करे क्यों! एहसास उतरते नहीं कागज़ पे, 'तनहा' फिर लिखा करे क्यों। Tariq Azeem Tanha

Ameer Khusro अमीर खुसरो

हज़रते-अमीर खुसरो यानी हिंदी उर्दू के सबसे पहले कवि थे। इन्होंने जब अपनी सोच का पस-मंज़र खोला तो इन्होंने ये लिखा जो की आज कल बहुत मशहूर गीत हैं दमा-दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर, कविता जगत में इन्होंने अपना योगदान दिया। क्योकि जब हिन्दुस्तान में ग़ज़ल आई ही आई थी तो इन्होंने उसके नक्श की नक्काशी की थी। और अपने पीर हज़रत-निजामुद्दीन औलिया की शागिर्दी में उसे लिखना शुरू किया। खुसरो हमारी इस आज कल की पीढ़ी से यूँ भी मेल खाते हैं क्योकि इनकी ज्यादातर पहेलिया, कवितायेँ, गज़ले, मुकम्मस, ठेठ जबान में थे, और ग़ज़ल को गांव की भाषा में लिखना सबसे पहले इन्होंने ही शुरू किया था। और गजल को लय का जिस्म खुसरो सहाब ने ही दिया था। बाद में कहीं जाकर कबीर और नाजीर का नाम आता हैं क्योकि अमीर सहाब कबीर से भी दो सदी पहले रहे थे। कहते हैं की अमीर साहब ने दिल्ली को चार मर्तबा उजड़ते और बसते देखा हैं। और बसी हुई एक बस्ती आज तुगलकाबाद के नाम से जानी जाती हैं जो की। जब हज़रते-निजामुद्दीन औलिया साहब इस जहान-ए-फानी से रुखसत हुए तो उनकी याद अमीर साहब बहुत उदास रहने लगे थे और उनकी मज़ार के पास बहुत रोते थे, और बहुत गाते थ

Ameer Khushro अमीर खुसरो की कहानी।

हज़रते-अमीर खुसरो यानी हिंदी उर्दू के सबसे पहले कवि थे। इन्होंने जब अपनी सोच का पस-मंज़र खोला तो इन्होंने ये लिखा जो की आज कल बहुत मशहूर गीत हैं दमा-दम मस्त कलंदर, अली दा पहला नंबर, कविता जगत में इन्होंने अपना योगदान दिया। क्योकि जब हिन्दुस्तान में ग़ज़ल आई ही आई थी तो इन्होंने उसके नक्श की नक्काशी की थी। और अपने पीर हज़रत-निजामुद्दीन औलिया की शागिर्दी में उसे लिखना शुरू किया। खुसरो हमारी इस आज कल की पीढ़ी से यूँ भी मेल खाते हैं क्योकि इनकी ज्यादातर पहेलिया, कवितायेँ, गज़ले, मुकम्मस, ठेठ जबान में थे, और ग़ज़ल को गांव की भाषा में लिखना सबसे पहले इन्होंने ही शुरू किया था। और गजल को लय का जिस्म खुसरो सहाब ने ही दिया था। बाद में कहीं जाकर कबीर और नाजीर का नाम आता हैं क्योकि अमीर सहाब कबीर से भी दो सदी पहले रहे थे। कहते हैं की अमीर साहब ने दिल्ली को चार मर्तबा उजड़ते और बसते देखा हैं। और बसी हुई एक बस्ती आज तुगलकाबाद के नाम से जानी जाती हैं जो की। जब हज़रते-निजामुद्दीन औलिया साहब इस जहान-ए-फानी से रुखसत हुए तो उनकी याद अमीर साहब बहुत उदास रहने लगे थे और उनकी मज़ार के पास बहुत रोते थे, और बहुत गाते थ

परे हैं दुनिया...

तेरी, मेरी, सबकी समझ से परे हैं दुनिया, कि मतलब के लिए कितना गिरे हैं दुनिया! हर चाराग़रो-गमख्वार गुरेज़ बना हैं अब तो, लिए दस्ते-शमशीर कातिल दिखे हैं दुनिया। कातिल, मक्कार, फरेब की सूरत बनाकर, एक तस्वीर जो बने हैं उसे कहे हैं दुनिया! दाग़-ए-माह दिखे हैं कोसो दूर से जमीं पर, आस्तीन में भी सांप लिए फिरे हैं दुनिया! सियाहे-नामे-आलमे-नापायेदारे-ताआस्सुब, इसी बायस नामें-मुहब्बत से जले हैं दुनिया! नाआशना-ए-खुदा को क्या ग़रज़ खुदा से, कोई मशगूले-खुदा हैं तब टिके हैं दुनिया! 'तनहा' एहले-कलम हैं और लिखे हैं दर्द, इसी को ना समझी हैं ना समझे हैं दुनिया। तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

रूबरू मांगे हैं....

होकर जख्मो से ये रूबरू मांगे हैं, कलम हैं आँसुओ की वुजू मांगे हैं! ये भी गज़ले कोई गज़ले है भला, ग़ज़ल तो शायर का लहू मांगे हैं। तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

गिला ना था....

मुझे उससे कोई भी गिला ना था, वो मेरे साथ कुछ दूर चला तो था! आँखे बिछाये बैठा हूँ दरवाजे पर, उसने आने के लिए कहा तो था! वो मुझसे पहले पहुँचा मंज़िल पर, हाँ थोडा सा तेज़ वो चला तो था! मेरा उस रात चाँद से वास्ता ना था, मेरे घर एक जलता दीया तो था! ये अलग बात के मेरे दोस्त भी थे, और भी था के मैं 'तनहा' तो था! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

मंज़िल के लिए घर से निकलना जरूर हैं...

मंज़िल के लिए घर से निकलना जरूर हैं, वापस नही हैं मुड़ना वहीं सम्भलना जरूर हैं! फलक पर बैठा चाँद यही कहता है रोज़, कुछ ख्वाबो का आँखों में पलना जरूर हैं! पैमाना उठाकर मैख़ाना उठाने लगे शराबी, शराब को पीकर इनका मचलना जरूर हैं! झूट से, मक्कारी से, फ़क़त हैं उसके रिश्ते, चाहे कोई भी मुद्दा हो उसे बोलना जरूर है! बहुत पक चुके झूठी तकरीरे सुन-सुनकर, कैसे भी उसके होठों को सिलना जरूर हैं! ना मिले वो तो कोई और मिलेगा हमे भी, किसी से ही सही दिल को बहलना जरूर हैं! इश्क़ कोई खेल नहीं बस ये जानिए 'तनहा', एक आग का फूल हैं और चलना जरूर हैं! वो नहीं आएगा आज शाम इस राह से फिर भी, मुझ बेताब को बालकनी में टहलना जरूर हैं! तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

मुश्किल हैं...

बड़ा मुश्किल हैं दिल की हर बात कहना, जैसा रात को दिन, दिन को रात कहना! हर जख्म दिल का उसका ही नाम लेता हैं, कहीं वो मिले तो मुझसे मुलाकात कहना! सच्चाई कड़वी होती हैं, रिश्ते तोड़ देती हैं, सच जब भी कहना नरमी के साथ कहना। पूरा दिन लेक्चर करके टूट जाना और फिर, रात को कलम से कागज़ पर जज़बात कहना! रोता है 'तनहा' ग़म-ए-जुदाई में इस कदर, होती हैं आँखों से खून की बरसात कहना। तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

दास्तान-ए-तनहा

मेरी किताब का कवर पृष्ठ अब मरके भी तुम सबमे जिन्दा रहूँगा, लिख रहा एक किताब दास्तान-ए-'तनहा'!!

दास्तान-ए-तनहा

सितारों तुम अब तो सो जाओ....

सितारों तुम अब तो सो जाओ के रात अभी बाकी है मुझे भी नींद आती हैं दीपक बुझे जा रहे हैं बेताब हुए जा रहे हैं हवाये ठंडी हो गयी मौसम में नमी हो गयी तुम  अब खवाबो में खो जाओ सितारों तुम अब तो सो जाओ चाँद नज़र दिखाने लगा दिलकश नज़र आने लगा कलम अब थम गयी हैं नब्ज़ मेरी जम गयी हैं खूबसूरती रात पे आने लगी मदमस्त होकर छाने लगी तुम भी इनके दीवाने हो जाओ सितारों तुम अब तो सो जाओ शाम कहकर गयी मुझसे रुसवा होकर गयी मुझसे वो रूठा हैं एक बात लेकर नाराज़ हैं मेरा साथ लेकर क्या से क्या हो गया हैं वो मुझसे जुदा हो गया हैं तुम अब सबसे जुदा हो जाओ सितारों तुम अब तो सो जाओ कल का दिन फिर जायेगा 'तनहा' उसमे घिर जायेगा हालात से समझौता होगा मंज़िल का न्यौता होगा फिर घर से निकल पड़ेंगे अपनी राह पर चल पड़ेंगे अपनी राह पे निकल तो जाओ सितारों तुम अब तो सो जाओ ये तो रोज़ चलता रहेगा सुरज़ रोज़ निकलता रहेगा छिप जाएगा वो कोने में क्या होना, उसका होने में नाराज़ को नाराज़ रहने दो तुम बस अपना साज़ रहने दो जिंदगी खुलकर जीये जाओ बेवजह खुश हुए जाओ पलके भारी होती जा रही मुझे भी अब नींद आ

हर दफा

हर दफा बे नज़र किया जा रहा हूँ मैं, या तो हुनर नही हैं या समझ नही आ रहा हूँ मैं!

छन्द मुक्त कविता

हज़ारो की भीड़ में मिली थी वो बस ऐसे ही बात की तो अच्छा लगा, हालांकि उसका प्रथम वर्ष था तो मैंने उसे थोडा सहारा दिया उसका काम था फोटोग्राफी उसके अंदर एक ललक थी, उसकी बातो से लगता था की वो आकाश को छूना चाहती हैं, इन हवाओ में खुशबू खोलना चाहती हैं! वो चाहती हैं की कॉलेज में उसे पहचान मिले, उसका नाम मिले। बस यही जान पाया हूँ अब तक उसका दिल बहुत अच्छा हैं, ईर्ष्या, नफरते उससे बहुत दूर हैं, आखिर सबकी लाड़ली जो हैं, कॉलेज में सब उसे बहुत पसंद करते हैं! मानवता का उदाहरण समझ लीजिये, अपने नाम की तरह उसकी बातो में भी खुशबू हैं, बिलकुल बच्ची सी हैं, प्यारी भी और मैं तो उसे तो उसे बच्चे-बच्चे कहकर ही बात करता हूँ।

तनहा जब भी गुज़रा फाकाकशी से...

देखो तो हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए, खबर नही अपनी हम वहाँ पहुँच गए! जहाँ कहीं उसका पता मिला था हमे, अंजुमन से उठकर वहां वहां पहुच गए! ताबीर ढूंढते-ढूंढते थककर टूट गए, फिर ख़्वाब अपने भी निहाँ पहुच गए! चाँद खूबसूरत रहेगा आखिर  कैसे, वहां भी जालिम ये इंसाँ पहुच गए! गुलशन जब भी आबाद करना चाहा, शादाब उसे करने बागबाँ पहुँच गए! जब भी 'तनहा' गुज़रा फाकाकशी से, उस रात उसके घर मेहमाँ पहुँच गए। तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

आसेब तो नहीं...

   जहाँ भी मैं गया मेरा पीछा ना छोड़ा, ये तेरी याद ही हैं ना कोई आसेब तो नहीं! आसेब;- भूत-प्रेत तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

हज़रते-तनहा

क्योंकर हुए हज़रते-'तनहा' बे-ख़िरद, बायस कहीं इश्क़-ओ-जबाँ तो नहीं! बे-ख़िरद;- नासमझ बायस;- वजह तारिक़ अजीम 'तनहा'

उर्दू लफ़्ज़ों के हिंदी माईने

बान= रक्षक बानो= संभ्रान्त महिला, कुलीन स्त्री बे नज़ीर= अनुपम, अनूठा, जिसके कोई बराबर का न हो बे नसीब= अभागा — आफत (अरबी) - विपत्ति, Difficulty/Problem औजार (अरबी) - उपकरण, Tool औकात (अरबी) क्षमता, Capability हैसियत (अरबी) - क्षमता, Capability मजाल (अरबी) - क्षमता, Capability इश्तहार (अरबी) - विज्ञापन, Advertisement इंतज़ाम (अरबी) - प्रबंध, Arrangement महफूज़ (अरबी) - सुरक्षित, Safe महसूस (अरबी) - आभास, Feeling Primary table Shabd Source Khadi Boli Meaning Mahsoos Arabic Aabhas Feeling Mahfil Arabic Sabha Meeting/Party Humesha Farsi Sada Forever Hifazat Arabic Raksha Protection Hamla Arabic Aakraman Attack Harkat Arabic Hilna Movement Hargiz Farsi Kadapi Never Har Farsi Prateyak Each Haya Arabic Laaj Shy Hissa Arabic Bhaag Part/Share Hisaab Arabic Lain-Dain Accounts Haal Arabic Dasha Condition Kadam Arabic Pag Step Kamar Farsi Kati Waist Kamzor Farsi Durbal Weak Kadar Arabic Maan Appreciation Kasam Arabic Saugandh Promise Kasar Arabic Kami Shortcoming

ग़ज़ल का इतिहास।

ग़ज़ल क्या है – तार िक अज़ीम ' तनहा' जब कभी यह प्रश्न पूछा जाता हैं कि ग़ज़ल क्या हैं तो सवाल सुन कर मन कुछ उलझन में पड जाता हैं। क्या यह कहना ठीक होगा कि ग़ज़ल जज़्बात और अलफाज़ का एक बेहतरीन गुंचा या मज़्मुआ हैं? या यह कहें कि ग़ज़ल उर्दू शायरी की इज़्ज़त हैं, आबरू है? लेकिन यह सब कहते वक़्त मन में एक प्रश्न उभरता हैं कि क्या यह सच हैं! माना कि ग़ज़ल उर्दू काव्य का एक अत्यंत लोकप्रिय, मधुर, दिलकश औऱ रसीला अंदाज़ हैं मगर यह भी उतना ही सच हैं कि उर्दू साहित्य में ग़ज़ल चर्चा का एक विषय भी बनी रही हैं। एक तरफ तो ग़ज़ल इतनी मधुर हैं कि वह लोगों के दिलों के नाज़ुक तारों को छेड देती हैं औऱ दूसरी ओर वही ग़ज़ल कुछ लोगों में कुछ ऐसी भावनाएं पैदा करती हैं कि जनाब कलीमुद्दीन अहमद साहब इसे ‘नंगे-शायरी’ यानी बेहूदी शायरी कहते हैं। जनाब शमीम अहमद शमीम इसे मनहूस शैली की शायरी कहते हैं, और जनाब अज़्मतुल्लाख़ान साहब तो यह कहने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते कि, ‘ग़ज़ल क़ाबिले गर्दन ज़दनी हैं’, यानी इसे जड से उखाड फेंकना चाहिये। वैसे तो ‘ग़ालिब’ भी यह कहते हैं कि- बक़द्रे शौक़ नहीं ज़र्फे तंगना-