ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर को आगरा में एक सैनिक परिवार में हुआ था। उन्होने अपने अब्बा और चाचा को बचपन में ही खो दिया था, ग़ालिब का जिंदगी अपने चाचा की मिलने वाली पेंशन से होता था!। वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सेना में ऊँचे ओहदे पर थे) ग़ालिब की ताल्लुक़ एक तुर्क घर से था। और इनके दादा बीच एशिया के समरक़न्द से सन् 1740 के आसपास हिन्दुस्तान आए थे। उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आये। उन्होने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और आखिर में आगरा में बस गये।
ग़ालिब ने एक बहुत बड़े उर्दू और फ़ारसी के जानकार की शागिर्दी में रहकर महज 11 साल की उम्र में ही अच्छे से फ़ारसी और उर्दू सीखी। फिर एक नवाब की लड़की से ग़ालिब का ब्याह कर दिया गया। और वो आकर फिर मीर कासिम जान गली मौहल्ला बल्लीमारान में रहने लगे थे, जो की चांदनी चौक के बेहद करीब हैं। शुरुवाती शेरी सफ़र में मिर्ज़ा ने अपना तखल्लुस 'असद' रखा था। पर उस वक़्त दूसरे किसी शायर का तखल्लुस भी असद ही था पर अपने ससुर के कहने पर इन्होंने अपना नाम 'ग़ालिब' रख लिया। ग़ालिब 11 साल की उम्र से फ़ारसी शेर कहने में बहुत आगे थे, वो ऐसे ऐसे शेर कह जाते थे जो उस वक़्त भी हर एक की समझ से परे थे। फिर इनके ससुर भी इंतेक़ाल फरमा गए, और उनके खोने के बाद ग़ालिब को एक लड़का पैदा हुआ लेकिन वह मरा हुआ पैदा हुआ था और ऐसे ही 7 लड़के पैदा हुआ थे, लेकिन ग़ालिब की किस्मत में बच्चों की ख़ुशी लिखी ही नहीं थी। और ऐसा भी हुआ हैं की ईद के दिन भी ग़ालिब के बच्चा मरा था। भला ऐसे में कोई ईद की ख़ुशी मनाये तो क्यों। लोग कहते भी थे, की मिर्ज़ा नोशा दीवाली पर तो बहुत खुश रहते हैं और गैर धर्म की मिठाई भी खाते हैं पर ईद पर ख़ुशी जाहिर नहीं करते। और वो बेचारा जाहिर करे भी तो क्यों उसके लिए तो ये मनहूस बनकर रह गया था। जब ग़ालिब राह चलते लोगो पर शेर कहते तो उनका मुँह देखते ही बनता था। और ऐसे ही ग़ालिब के चर्चे जौक़ इब्राहिम 'जौक़' जो की बहादुर शाह ज़फर के दरबारी शायर और उनके उस्ताद-ए-मोहतरम थे, उन तक आ पहुचे की कोई ऐसा भी शायर हैं जो गम की सरहद पर जाकर बखूबी से शेर कहता हैं।
उनके ससुर के इंतेक़ाल के बाद वो गलत संगत में पड़ गए थे, वो चौरसी और शराब का सहारा लेने लगे थे। और जुआ भी खेलने लगे थे, जो पेंशन से रूपया पैसा मिलता था वो शराब और जुए में उड़ाने लगे थे, इसीलिए ग़ालिब ने शराब के नशे में जवानी की सियाहकारिया को अच्छे से लिखा। और शराब भी अव्वल नंबर की पीते थे, जो की मेरठ कैंट से मिलती थी। एक दफा मिर्ज़ा शराब लेकर आये और उनकी बीवी ने उनसे हिसाब माँगा तो उन्होंने कहा की वो सारे पैसे की शराब ले आये हैं तो उनकी बीवी ने कहा की शराब छोड़ दीजिये वैसे भी घर में खाने के लाले पड रहे हैं तो उन्होंने कहा की खुदा ने रिज़्क़ देने का वादा किया था पर शराब का नहीं इसीलिए मैंने शराब का बंदोबस्त खुद कर लिया हैं। ग़ालिब क़र्ज़ लेकर भी शराब पीते थे। लेकिन ग़ालिब इतने मशहूर थे की कोई भी उन्हें उधार दे देता था इसीलिए ग़ालिब ने कहा भी हैं की
'क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ,
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन।।
ग़ालिब के किस्से भी बहुत मशहूर हैं मैं अगर टाइप करता रहा तो शायद शाम हो जाए और हर किस्सा का अपना बड़ा भरी वुजूद हैं। मैं कुछ शेर खुद ग़ालिब के लिए लिखे थे आप देखिये।
ये क्या की ग़म को उतारा तूने शायरी में 'ग़ालिब'
तेरी जगह 'तनहा' होता तो कब का मर गया होता
तेरी दास्तान सुनकर मेरी आँखे ही भर आई,
तुझ पर तो गुज़री तूने तो दरिया बहाया होगा
ये क्या के ज़ौक़ तुझको नहीं कीमते-ग़ालिब,
देख तनहा को जो कहे हैं ग़ालिब को शायरी-ऐ-बाब
सदी-दर-सदी कोई 'ज़ौक़' रहा हैं 'तनहा'
उसी सदी में लहराये हैं परचमें-ग़ालिब भी।
आवारगी, ग़मे-जिंदगी-ओ-मयपरस्ती,
ऐसे ही कोई ग़ालिब ना बने हैं 'तनहा'
नाम पर तेरे बहुत सी दुकाने चल रही 'ग़ालिब',
एक शायरे-तनहा हैं उसे कोई जाने भी तो क्यों!
जितने नजदीक तेरे गया ग़ालिब, और दूर हो गया
ग़ालिब को जितना पढ़ लो, उतना कम हैं 'तनहा'
'तनहा' जाके कहदे बस ज़ौक़ से इतना,
काफियेबन्दी को ही शायरी नहीं कहते!
हज़ार अदावत थी ज़ौक़ और ग़ालिब के दरमियाँ,
मय्यते-ज़ौक़ पर आँसू बहाये हैं 'ग़ालिब' भी
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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