مہتاب لئے شمشیر مجھے دھندہ رہا ہیں اب تک 'Mahtaab Liye Shamsheer Mujhe Dhundh Raha Hain ab tak ۔ ۔ n
महताब लिए शमशीर मुझे ढूंढ रहा हैं अब तक,
बस मेरा जुर्म ये है मेरे घर जलता दीया हैं अब तक
अब इस तंगमयकशी पर क्यों ना मर मिटे जमाना,
पैमाने में शराब नहीं मगर होठों से लगा है अब तक!
ये भी एक ख्याल हैं मेरा तेरी ख़याले-बेख्याली का,
आशना है हम तेरे लिए या ना-आशना हैं अब तक
उसने कई वादे फरेब किये, पर अब मैं समझा उसे,
वो समझ रहा हैं की झूठ पर पर्दा पड़ा हैं अब तक!
ना इज़्ज़ते-गदाया, ना हैं लफ़्फ़ाज़ी से कोई गुरेज़,
बड़े ओहदे पर हैं मगर छोटो पे अड़ा हैं अब तक!
वो तो राह-ए-कैफियते-मय-ए-नाब पर चल पड़ा,
मिला जो मुझको कहा कैसे रहे पारसा अब तक!
मैंने तो पत्थर तराशा था बहुत पहले पर ये क्या?,
वो खुद ही जमाने का समझता खुदा हैं अब तक!
طارق عظیم 'تنہا'
Comments
Post a Comment