हज़रते-अमीर खुसरो यानी हिंदी उर्दू के सबसे पहले कवि थे। इन्होंने जब अपनी सोच का पस-मंज़र खोला तो इन्होंने ये लिखा जो की आज कल बहुत मशहूर गीत हैं
दमा-दम मस्त कलंदर,
अली दा पहला नंबर,
कविता जगत में इन्होंने अपना योगदान दिया। क्योकि जब हिन्दुस्तान में ग़ज़ल आई ही आई थी तो इन्होंने उसके नक्श की नक्काशी की थी। और अपने पीर हज़रत-निजामुद्दीन औलिया की शागिर्दी में उसे लिखना शुरू किया। खुसरो हमारी इस आज कल की पीढ़ी से यूँ भी मेल खाते हैं क्योकि इनकी ज्यादातर पहेलिया, कवितायेँ, गज़ले, मुकम्मस, ठेठ जबान में थे, और ग़ज़ल को गांव की भाषा में लिखना सबसे पहले इन्होंने ही शुरू किया था। और गजल को लय का जिस्म खुसरो सहाब ने ही दिया था। बाद में कहीं जाकर कबीर और नाजीर का नाम आता हैं क्योकि अमीर सहाब कबीर से भी दो सदी पहले रहे थे। कहते हैं की अमीर साहब ने दिल्ली को चार मर्तबा उजड़ते और बसते देखा हैं। और बसी हुई एक बस्ती आज तुगलकाबाद के नाम से जानी जाती हैं जो की। जब हज़रते-निजामुद्दीन औलिया साहब इस जहान-ए-फानी से रुखसत हुए तो उनकी याद अमीर साहब बहुत उदास रहने लगे थे और उनकी मज़ार के पास बहुत रोते थे, और बहुत गाते थे। जब ग़मे-हिज़्र हद से बढ़ा तो करीब चार महीने बाद आप भी इंतेक़ाल फरमा गए। वो कहते है ना,
हालाते-हिज़्र में जो रक्स नहीं कर सकता,
उसके लिए ये बेहतर हैं की पागल हो जाए।
हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास ही इनका भी मज़ार हैं। इनके दो मिसरे कुछ इस तरह से हैं।
"अम्मा मेरे बाबा को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री - कि सावन आया"
पटियाली कासगंज उत्तर प्रदेश में आज भी हज़रत की याद में एक मेला और मुशायरा मुनाक़िद किया जाता हैं। आपकी याद, कलाम, आपकी लय ओ ग़ज़ल, अशआर जिन्दा रखने के लिए भारत सरकार ने बहुत सी फाउंडेशन चला रखी हैं।
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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