आज मेरे पसंदीदा गीतकार साहिर साहब की पुण्यतिथि है , साहिर वाक़ई क़लम के साहिर थे वैसे उन्होंने कई नग़्में दिए पर अगर सिर्फ़ में दो गीत कहूं "तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा जिसे रफ़ी साहब ने स्वर दिया है और दूसरा औरत की पीड़ा को उन्होंने जिस तरह 50 के दशक में बयां किया है औरत ने जन्म दिया मर्दों को" ये दिए होते तो भी साहिर मेरे पसंदीदा गीतकार होते ! चलो फिर अजनबी बन जाएं ,तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएं,हम ने सुना था एक है भारत ,वो सुबह कभी तो आएगी, ऐसे गीत या उनके द्वारा कहे गए भजन ईश्वर अल्लाह तेरो नाम या 60 के दशक में कहे गए भजन मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय इस तरह के भजन मुझे बहुत पसंद हैं या नज़्म परछाइयां रोमांटिक शायर होने के साथ उन्होंने संजीदा शायरी भी की "कि कौन रोता है किसी और की खातिर ए दोस्त ,सबको अपनी ही किसी बात पे राना आ गया " इन्क़लाब भी उनके अंदर झलकता है 'हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ , गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सहीह'
जागीरदार का बेटा बचपन में पिता के साथ समझौता किया और मां के साथ रहने लगे उसके बाद उन्होंने वो ग़ुरबत के दिन देखे जिस तरह शैलेन्द्र ने देखे साहिर ख़ुद कहते हैं " भूख ने हमको जन्म दिया मेहनत ने हमको पाला,हम लोगो का इस दुनिया में है कोई नहीं रखवाला" जब साहिर ने शायरी की दुनिया में कदम रखा तो उस समय जोश,जिगर,फ़िराक़,फ़ैज़,मजाज़,सिकंदर अली वज्द जैसे लोगों का शायरी की दुनिया पर राज था उनकी तूती बोलती थी, साहिर भी अपने काम में लगे रहे और वो आहिस्ता आहिस्ता कालेज के समय में अपनी शायरी के लिए मशहूर हो चुके थे 1940 के दशक में कई सौ किलोमीटर दूर साहिर अपना शे'री मजमुआ छपवाने के लिए गये अधूरा इश्क़ हुआ जो मुकम्मल भी ना हो सका इसी जद्दोजहद में साहिर ने आजीवन शादी नहीं की एक जमाना था कि लड़कियां कैफ़ी आज़मी की तस्वीरें खरीदा करती थी वही दौर साहिर का भी आया ,साहिर की दोस्ती उर्दू कहानीकार राजेन्द्र सिंह बेदी, शायर
अली सरदार जाफ़री,जां निसार अख़्तर जैसे लोगों से हुई।
1969 में ग़ालिब की 100वीं वफ़ात और गांधी जी की 100वीं विलादत थी उस पर साहिर ने ये नज़्म कही 'गाँधी' हो या 'ग़ालिब' हो ख़त्म हुआ दोनों का जश्न आओ उन्हें अब कर दें दफ़्न ख़त्म करो तहज़ीब की बात बंद करो कल्चर का शोर सत्य अहिंसा सब बकवास हम भी क़ातिल तुम भी चोर ख़त्म हुआ दोनों का जश्न साहिर ने कहा इस देश के लोगो ने गांधी तक को छोड़ा नहीं ,उर्दू ख़त्म कर दी और ग़ालिब के नाम पर आप उर्दू का जश्न मना रहे हैं हया नहीं बची बिल्कुल
एक वाक़्या ये भी है जावेद साहब जब बेरोजगारी के दिनों से गुज़र रहे थे तो साहिर ने उन्हें 200 रुपए की बड़ी रकम दी उसके बाद जब वे दोनों अक्सर मिलते तो उनमें मज़ाक हुआ करता जावेद अख़्तर कहते अब मुझपे 200 रुपए हैं तो मगर में दूंगा नहीं इसी तरह दोस्ती चलती रही और आज के दिन मात्र 58 वर्ष की आयु में 1980 में ये महान शायर हमेशा के लिए इस दुनिया से रुख़सत हो गया ! पुण्यतिथि पर ख़िराज़-ए-अक़ीदत क़लम के साहिर 🙏❣️🇮🇳
वे लमहे कितने दिलकश थे वे घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं,
वे सहरे कितने नाज़ुक थे वे लड़ियाँ कितनी प्यारी थीं
बस्ती को हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया
हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया
नागाह लहकते खेतों से टापों की सदायें आने लगीं
बारूद की बोझल बू लेकर पच्छम से हवायें आने लगीं
तामीर के रोशन चेहरे पर तखरीब का बादल फैल गया
हर गाँव में वहशत नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया
मग़रिब के मुहज़्ज़ब मुल्कों से कुछ खाकी वर्दी-पोश आये
इठलाते हुए मग़रूर आये, लहराते हुए मदहोश आये
खामोश ज़मीं के सीने में, खैमों की तनाबें गड़ने लगीं
मक्खन-सी मुलायम राहों पर बूटों की खराशें पड़ने लगीं
फौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदायें डूब गईं
जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बायें डूब गईं
इनसान की कीमत गिरने लगी,अजनास के भाओ चढ़ने लगे
चौपाल की रौनक घटने लगी, भरती के दफ़ातर बढ़ने लगे
बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे
इन जाने वाले दस्तों में ग़ैरत भी गई, बरनाई भी
माओं के जवां बेटे भी गये बहनों के चहेते भाई भी
बस्ती पे उदासी छाने लगी, मेलों की बहारें ख़त्म हुई
आमों की लचकती शाखों से झूलों की कतारें ख़त्म हुई
धूल उड़ने लगी बाज़ारों में, भूख उगने लगी खलियानों में
हर चीज़ दुकानों से उठकर, रूपोश हुई तहखानों में
बदहाल घरों की बदहाली, बढ़ते-बढ़ते जंजाल बनी
महँगाई बढ़कर काल बनी, सारी बस्ती कंगाल बनी
चरवाहियाँ रस्ता भूल गईं, पनहारियाँ पनघट छोड़ गईं
कितनी ही कंवारी अबलायें, माँ-बाप की चौखट छोड़ गईं
इफ़लास-ज़दा दहकानों के हल-बैल बिके, खलियान बिके
जीने की तमन्ना के हाथों, जीने ही के सब सामान बिके
कुछ भी न रहा जब बिकने को जिस्मों की तिजारत होने लगी
ख़लवत में भी जो ममनूअ थी वह जलवत में जसारत होने लगी !
( साहिर लुधियानवी)
नज़्म - परछाइयां से
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