मैं खुद ही अपनी मंज़िल हूँ, और सफ़र भी मेरा मुझमे हैं!
मैं कभी अकेले चलता नहीं हूँ, हमसफ़र भी मेरा मुझमे हैं!
मैं एक महफ़िल हूँ चलती फिरती, शोर शराबा मुझमे हैं,
एक ख़ामोशी हूँ तन्हाई जैसी और दहर भी मेरा मुझमे हैं!
खाना सबको खिलाता हूँ, कभी खून की नदिया बहाता हूँ,
मैं हूँ रहम दिल कभी बातिल हर बशर भी मेरा मुझमे हैं!
मैं जिसको चाहे जैसा देखूँ, मेरी मर्जी हैं मैं वैसा देखूँ,
आँखे मेरी अपनी अपनी हैं और नज़र भी मेरा मुझमे हैं!
मैं गूँगा हूँ और 'तनहा' हूँ, बस डायरी में लिख लेता हूँ,
जब कलम चले तो जमाना डरे सुखनवर भी मेरा मुझमे हैं!
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
Comments
Post a Comment