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सहने लगते हैं।

दुःख जब भी तेरा हम सहने लगते हैं,
फिर इक नई ग़ज़ल हम कहने लगते हैं!

जिन्दा दिली जब मर जाती हैं इंसा में,
उदास फिर वो सरे-शाम रहने लगते हैं!

जिस शब में उसकी याद आती हैं फिर,
खून के अश्क़ आँखों से बहने लगते हैं!

इश्क़ के दर्दे-जेवर से अमीर हो जाए,
जिस आशिक़ के हाथ ये गहने लगते हैं!

'तनहा' अंदर का शायर चीख उठता हैं,
कलम से जब हम चुप रहने लगते हैं!

तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

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