ये उस्तादीयत भी बड़ा ज़िम्मेदाराना काम है कसम से....
हम ने अपने उस्ताद ए मुहतरम को इस ज़िम्मेदारी से थकते नहीं देखा, वे बड़े सहज सरल इंसान हैं जिन्होंने शागिर्दों को बेटे से भी बढ़कर जगह दी है और हम भी उनकी इस करमफ़रमाई को ख़ुदा की नेमत से बढ़कर मानते हैं लेकिन हमारे दौर के बाद के शागिर्द उस्ताद को कुछ नहीं समझते, लिया फोन कभी इसे चटकाया कभी उसे..... जब पूछो तो उस्ताद कौन हैं तो कोई कहेगा फलां थे 6 महीने पहले उनसे 2 महीने पहले फलां थे, अब कोई नहीं है बस इधर उधर कर लेते हैं बाक़ी गूगल से काम चल जाता है इसके अलावा कुछ कहते है कि ये भी उस्ताद है वो भी है जब दोनों नहीं तो फलां हैं कोई नहीं तो हम स्वयं हैं।
दस जगह मिसरे सुधरवाएँगे, और सफलता का क्रेडिट किसी बेबहरे सयोंजक को देंगे या खुद को.... वाहः भई वाहः क्या शागिर्द हैं ?
एक वो ज़माना था उस्तादों की चौपाल पर शागिर्द दरी बिछाते थे, इज़्ज़त करते थे आज तो कोई उस्ताद को नहीं समझता कुछ।
लेकिन जब टीचर डे होगा तो पोस्ट ऐसे चिपकाए फिरते हैं कि यही अर्जुन हैं, कई तो 10 -12 गुरु की फ़ोटो चेंप देते हैं।
कुछ उस्तादों ने भी ये नया नियम बना लिया है कि मेरी किताब खरीदो उरूज़ की, सेवा पानी करो तब सिखाऊंगा... वैसे ये भी ग़लत नहीं क्योंकि 4 बह्र सीख कर शागिर्द ख़ुद नई चिड़िया फांसना शुरू कर देता है कई दिल्ली के उस्ताद तो शाइरात से ही चैटियाते रहते हैं जगह जगह इनबॉक्स में लिख लिख कर बांटे फिरते हैं किसी किसी को तो हूबहू ग़ज़ल दे देकर फ़ज़ीयत करवाते हैं, कुछ रंगीन मिज़ाज भी हैं यहां जो आधी रोटी पर दूसरे शाइर हज़रात की शागिरदा छुड़ा कर ता-गिड़-धा का अध्ययन करवाते हैं उस बेचारे शाइर को फंसा कर धमकी देते हैं ।
मैं सोच रहा था ये ज़िम्मेदारी का काम है लेकिन आजकल लगता है ये ज़िम्मेदारी का नहीं रंगदारी का काम है।
इस बाबत राहत इंदौरी का एक शेर याद आता है-
हमारे पीर तक़ी मीर ने कहा था कभी,
मियां! ये आशिक़ी इज़्ज़त बिगाड़ देती है।।
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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