(1)
मैदाने-हश्र को भूल गए हम मसरूफ होकर,
इस जिंदगी को ऐसे मसरूफ़ होकर ना गुज़ारो!
(2)
अब अपने कदमो पे भी यकीन ना रहा मुझे,
उतरा हूँ आज सीढ़ियों से तो दीवार का सहारा लेकर!
(3)
मिरी दास्ताने-महब्बत इतनी भी तवील नहीं,
आगाज़ उसकी नज़र से हैं इंतेहा जफ़ा पे बस!
(4)
बोझ ना मान गर लड़की हुई पैदा,
बस इतना जान ले खुदा की रहमत हैं!
(5)
'तनहा' जो लोग हर चीज़ की कीमत बताते हैं,
मुझे ये बेचारे नए नए रईस नज़र आते हैं,
(6)
मुझे मुन्तशिर जानना तिरी भूल होगी,
मिरी गुफ़्तार से हैं हुज़ूम-ए-मुत्ताहिद!
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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