नोट- ये जितनी भी बातें मैंनें लिखी है ये मुझे एक ट्रैन यात्रा के दौरान किसी प्रोफेसर ने बताई थी, वह व्यक्ति मुझे धार्मिक के साथ व्यक्तिगत तौर भी खरा इंसान लगा था, मुझे (यानी तारिक़ अज़ीम 'तनहा' को) आगरा घूमने जाना था सफ़र लंबा था, कुछ उस व्यक्ति ने मुझे बात बताई कुछ मैंनें उसे अपने किस्से सुनाये लेकिन उसने एक अपनी ज़िंदगी से जुड़ा हुआ किस्सा ऐसा सुनाया की जिसे सुनाते हुए वह व्यक्ति बहुत रोया और आज 1947 से आज तक हो रहे एलेक्शन्स में वोट बैंक कैसे बनाया जाता है उसे सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। चूंकि मैं एक शायर और लेखक भी हूँ तो मैंनें उस दिन को जस के तस आपके सामने रख दिया है, आप यह उसकी जिंदगी से जुड़ा हुआ किस्सा पढ़िए।
13 अगस्त 1980 तारीख़ का वो दिन है, जिसे भूल पाना मुश्किल है, ये वो दिन था जब #मुरादाबाद ईदगाह में सैकड़ों #नमाज़ियों को गोलियों से भून दिया गया था, ये अलग बात है कि आज उसकी बरसी है और सोशल मीडिया पर सन्नाटा है, इस नरसंहार पर खामोशी की सबसे बड़ी वजह शायद आपको मालूम ना हो, लेकिन इस खामोशी की सबसे बड़ी वजह ये है कि ये नरसंहार बाक़ायदा #कांग्रेस की देखरेख में हुआ था, और ये कोई हिन्दू मुस्लिम का दंगा नही था बल्कि #इंदिरा गांधी का "मुसलमानों को सबक सिखाने" वाला #दंगा था, ये अलग बात है कि बाद में उसी धार्मिक रंग दे दिया गया, यक़ीन जानिए अगर ये नरसंहार भाजपा शासन में हुआ होता तो इसकी बरसी मनाई जाती और कथित #सेक्युलर/लिबरल घड़ियाली आंसू बहा रहे होते, इस सरकार में बीजेपी के एक मंत्री हैं जिनका नाम "#एम जे अकबर" है, वो उस वक़्त पत्रकार हुआ करते थे, कभी उन्हें पढ़ियेगा...
ख़ैर, पढ़िये.....
मुरादाबाद शहर मेरी यादों में एक खास जगह रखता है, मैं अप्रैल 1980 में एक किशोर के रूप में इस शहर के लिए आया था और मुस्लिम मुसाफिरखाना (गेस्ट हाउस), में रुका था, मैं हिंदू कॉलेज में एक संयुक्त प्रवेश परीक्षा देने के लिए आया था।
मुरादाबाद की कुछ अच्छी यादों के बावजूद शहर की कुछ बहुत ही दर्दनाक यादें 13 अगस्त 1980 के दंगों की हैं, अगस्त 1980 में मैं दिल्ली में पुलिस परिसर में अपनी बहन के घर पर रह रहा था, उसका पति, अब एक सेवानिवृत्त पुलिस महानिरीक्षक, उस समय केंद्रीय पुलिस बल में असिस्टेंट कमांडेंट (अधीक्षक पुलिस) के रूप में सेवारत था।
मैं उसे इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिए एनआईटी कालीकट, केरल, जाने से पहले अलविदा कहने गया था क्योंकि मैं दो सप्ताह में कालीकट जा रहा था।
13 अगस्त, 1980 ईद का दिन था, मैं और मेरे भाई-भाभी देर शाम दोस्तों के साथ आराम से बैठे थे जब उनका सूबेदार मेजर एक मोटर साइकिल पर आया और उनके कमांडिंग अफ़सर का एक लिखित आदेश उन्हें सौपा जिसमें उन्हें अपनी यूनिटों को तैयार करने और तुरंत मुरादाबाद के लिए निकलने को कहा गया था।
मेरे बहनोई ने सूबेदार मेजर को थोड़ी देर इंतजार करने के लिए कहा, अंदर गये, अपनी वर्दी पहनी और उसी समय उसके साथ बैरकों की तरफ़ निकल गये मुरादाबाद जाने के लिए अपने सैनिकों को आदेश देने।
उन्होंने हमें बताया की मुरादाबाद में क्या हुआ था और मुझे और मेरी बड़ी बहन को उनके साथ ही चलने के लिए तैयार करने को कहा, दिल्ली में रुके रहने का कोई मतलब नहीं था।
दो से तीन घंटे के भीतर, लगभग 500 सैनिक और अफ़सर अपने सामान हरे पुलिस ट्रकों और जीपों में लोड कर साथ जाने के लिए तैयार थे।
मैं, मेरी बहन और उनका डेढ़ वर्षीय बेटा भी उनके साथ जीप में सवार हुए और 11-12 बजे हमने दिल्ली छोड़ दिया और लगभग 3-4 बजे सुबह मुरादाबाद पहुंचे जहाँ प्रदर्शनी ग्राउंड पर टेंट पिचिंग शुरू हो गयी, देसी बंदूकों और बमों की गरज लगता सुनाई दे रही थी, ये सब बहुत डरावना था।
दल के कुछ सैनिकों को तुरंत सिविल पुलिस के सक्रिय मार्गदर्शन के साथ स्ट्रॅटेजिक स्थानों पर तैनात कर दिया गया और सुबह 9.00 बजे तक सभी सैनिकों को तैनात कर दिया गया था।
हवा में दंगाइयों द्वारा चलाई देसी बंदूकों और हर हर महादेव और अल्लाहु अकबर के नारों का शोर गूँज रहा था, पुलिस जवाबी गोलियाँ चला रही थी लेकिन केवल मुसलमानों पर, मुसलमान बहुत गुस्से में थे क्योंकि जानबूझ कर उन्हें उकसाने के लिए सूअरों को ईद की नमाज पढ़ रहे लोगों की पंक्तियों के बीच से गुज़ारा गया और पुलिस ने उन पर अंधाधुंध और अकारण गोलीबारी की, केंद्रीय बलों के आगमन से कुछ ख़ास असर नहीं पड़ा हालाँकि वे तटस्थ थे और बस निष्पक्ष ढंग से दंगों को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे थे, उनके पास सूचना का अभाव था और स्थानीय पुलिस के सहयोग के बिना वो असहाय थे।
पूरी रात, यहां तक की कर्फ्यू के दौरान भी, उपद्रवी मुसलमानों, हिंदुओं और पुलिस के बीच दंगे और घमासान युद्ध जारी रहा।
अगले दिन 15 अगस्त था और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने राष्ट्र को संबोधित किया और अपने पहले वाक्य में ही मुरादाबाद में हो रहे खूनखराबे का उल्लेख किया।
दिन के अंत तक पुलिस कुछ हद तक स्थिति को नियंत्रण में लाने में कामयाब रही, लेकिन छिटपुट हिंसा जारी रही। सैकड़ों मुसलमानों को दंगा करने के आरोप में कुख्यात प्रांतीय सशस्त्र बल (पीएसी) द्वारा उठाया गया और बसों में भरके पीएसी परिसर में लाया गया, जो की केंद्रीय बलों के शिविर के ठीक सामने था, और निर्दयता से पीटा गया।
जब बंदी बसों से उतर रहे थे तभी उनकी पिटाई शुरू हो जाती थी, लाठियों से उनके सिर, कंधे, पैर, पेट और छाती पर वार हो रहे थे, उनमें से ज्यादातर बसों से कुछ ही मीटर की दूरी तक चलने के बाद खून में भीग रहे थे।
मैने एक बूढ़े मुस्लिम आदमी की सफेद दाढ़ी की उसके सर और चेहरे पर लगी चोटों से बहते खून से लाल होते देखा, लेकिन पीएसी के जवान अभी भी संतुष्ट नहीं थे, उनमें से एक ने पूरी ताकत के साथ उस बूढ़े की खून में भीगी दाढ़ी को खींचा, असहनीय दर्द के चलते बूढ़े आदमी ने चेतना खो दी और संभवतः बाद में मार गया।
कांटेदार बाड़, जो पीएसी और केंद्रीय बलों के शिविरों को अलग करती थी, के दूसरी तरफ़ खड़े हुए कुछ ही मीटर की दूरी से मैने ये सब देखा और मैं बहुत डर गया, इस घटना ने मेरे किशोर मस्तिष्क और चेतना पर जीवन-व्यापी प्रभाव छोड़ा।
यह बाद में मुरादाबाद के लोगों ने बताया की इस दंगे की योजना श्रीमती गांधी की कांग्रेस ने ही बनाई थी क्योंकि वो अपनी जनवरी 1980 की चुनावी जीत के बाद हिंदू वोट बैंक का निर्माण करना चाहती थीं, उनके लिए मुसलमान, जिन्होंने 1977 में कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था, अब भरोसे के लायक नहीं थे, गुजरात में 2002 नरसंहार के दौरान नरेंद्र मोदी की तरह, उन्होने भी मुसलमानों को "सबक सिखाने" की कोशिश थी।
दंगे साल के अंत तक जारी रहे और अनाधिकारिक रूप से 2500 से अधिक लोगों की जानें गयीं, हालांकि आधिकारिक तौर पर केवल 400 को मृत के रूप में सूचीबद्ध किया गया। यह 1919 के प्रसिद्ध जलियाँवाला बाग नरसंहार के बराबर है।
मुरादाबाद के मुस्लिम नरसंहार और 1980 के दंगों की दर्दनाक यादें सिर्फ़ उनको झेलने वालों के लिए ही नहीं बल्कि भारत के पूरे मुस्लिम समुदाय के लिए हैं, 40 साल बाद भी उन परेशान करने वाले दृश्यों और दर्दनाक यादों को मैं अपने बुरे सपनों में देखता हूँ, मैं इन अनुभवों को पहली बार आप सबसे बाँट रहा हूँ जिन्हें मैने अपने परिवार के अलावा किसी से भी सांझा नहीं किया था, इस उम्मीद के साथ की मुरादाबाद, गुजरात और मुजफ्फरनगर फिर कभी ना घटें।
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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