मॉडर्नाइजेशन को दूसरे तबकों के मुकाबले मुसलमानो ने ज़्यादा झिझक के साथ अपनाया इसीलिए इसकी रफ़्तार इस तबके में धीमी रही। इसकी एक वजह थी। दुनिया के ज़्यादातर हिस्सो में यह ब्रिटिश एंपायर की मिलिट्री विक्ट्री के साथ पहुंचा और चाहे वो सल्तनत ए उस्मानिया हो या मुगल हुकुमत, ज्यादातर मौकों पर डिफेटेड पार्टी मुस्लिम्स थे। मैदान ए जंग में हार जाने के बाद उन्होने अंग्रेज हुकूमत के साथ आई हर जदीद चीज़ और सोच को अपने खिलाफ़ एक क्रिश्चियन कांस्पिरेसी तसव्वुर किया। पर्दा भी एक ऐसी ही रस्म थी और एक बड़े वक्त तक बे पर्दा औरतों को तंजिया तौर पर फिरंगी कहा जाता था। लेकिन दूसरी तरफ़ एक छोटा सा तबका इन्ही मुसलमानों में और भी था। मशहूर राइटर क़ुर्रतुल ऐन हैदर नें उस वक्त अली गढ़ यूनिवर्सिटी से अपना नाम कटा लिया जब उन्हें बे पर्दा लड़को के साथ क्लास में बैठने की इजाज़त नहीं मिली। सैयद सज्जाद ज़हीर की बेटियां जिनमें से एक आज नादिरा बब्बर के नाम से जानी जाती हैं उस वक्त मेरे गांव के बराबर वाले गांव में एक शादी अटेंड करने आईं तो उन्हे बेपर्दा देख कर लोगों ने तवायफ समझ लिया क्यों कि उस वक्त सिर्फ़ तवाइफे ही बेपर्दा निकला करती थीं।नव्वे की दहाई तक चीज़े धीरे धीरे और फिर बड़ी तेज़ी से बदलीं। एक दम स्कूटी चलाती हुई लड़किया बुर्के में भी और बिना बुर्के के भी ना सिर्फ़ नज़र आने लगीं बल्कि मुस्लिम समाज उन्हें एक्सेप्ट भी करने लगा। इसके फायदे भी मुस्लिम समाज में नज़र आने लगे। अर्से से सिर्फ़ मर्दों की मामूली सी कमाई पर चलने वाले घरों के हालात सुधरने लगे। झाड़ फूंक तावीज गंडे करने वालो की आमदनी कम होने लगी। और सबसे बड़ी बात यह कि समाज बे पर्दा रहने वाली, सिर्फ़ हिजाब पहनने वाली, और बुर्का पहनने वाली लड़कियों को एक साथ लगभग एक तरह से एक्सेप्ट करने लगा।
अब आते हैं मुद्दे पर। कल जो हुआ ये कैराना मुद्दे के नाकाम होने के बाद इलेक्शंस से ठीक पहले पोलराइजेशन की एक और कोशिश के अलावा एक और एजेंडा भी रखता है। यह मुसलमानों को वापस पीछे की तरफ़ धकेलने की एक साज़िश भी है। हिजाब या बुर्का पहनना या नहीं पहनना हर लड़की की अपनी चॉइस है लेकिन कल के बाद मुस्लिम समाज की हर वो लड़की जो पर्दा नहीं करना चाहती थी या अब तक नहीं करती थी या तो बहस में आकर पर्दा करने लगेगी या फिर अपने समाज में ख़ुद को मिस फिट महसूस करने लगेगी। यह एंसिएंट माइंड सेट के लोगो की एक साज़िश है जो नहीं चाहती कि एक तबके में किसी भी किस्म की जदिदियत आए क्यों कि जदीदियत हमेशा एक राजनीतिक चेतना भी लाती है। मुसलमानों के साथ यह सियासत हमेशा हुई है। सुएज कैनाल वार जीतने वाले नासिर के मॉर्डनाइजेशन को सऊदी अरब के पैन इस्लामिस्म के ज़रिए फेल कराया गया। भुट्टो के लैंड रिफॉर्म और बैंक् नेशनलाइजेशन के प्रोग्राम को ज़िया उल हक़ के ज़रिए दबाया गया। बहुत मिसालें हैं। बहरहाल सुना है कि किसी मौलाना ने उस लड़की के लिए पांच लाख रूपये का इनाम भी घोषित किया है। उम्मीद करता हूं उन मौलाना ने ऐसी हर शादी में निकाह पढ़ाने से इंकार कर दिया होगा जिसमें बेहद जहेज़ लिया गया हो, या उस लड़की को भी शायद कभी पांच रुपए दिए होंगे जिसने अपनी मर्ज़ी के खिलाफ़ होने वाली शादी से इंकार कर दिया हो।
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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