"गटर में डूबती जिंदगी"
दोपहर की चिलचिलाती धूप में गटर का ढक्कन खुला हुआ था। वह गली सुनसान थी। इतनी धूप में कोई अपने घर से बाहर नहीं निकलना चाहता था। गटर के उस गड्ढे से रह-रहकर पानी के कुलबुलाने की आवाज़ आ रही थी। थोड़ी देर बाद एक सिर बाहर निकला। इधर उधर देखा और फिर वह पूरा का पूरा आदमी उस गड्ढे से बाहर आ गया। गटर के काले बदबूदार पानी से नहाया हुआ। सूरज की तरफ देख आप भेज कर उसने गटर का ढक्कन बंद कर दिया। पसलियों से चिपके उस शरीर में शायद जान नहीं थी। केवल शरीर था पर आत्मा मर चुकी थी। इसलिए उस गटर के बदबूदार पानी में डुबकी लगाने पर उसकी आत्मा नहीं तिलमिलाई। उसने पास रखी अपनी शर्ट उठाई और थोड़े आगे चलकर एक सार्वजनिक नल के नीचे बैठ गया। काफी देर तक बैठा रहा और फिर उठकर खड़ा हो गया। शरीर पर लिपटे मैले कपड़ों का पानी जब निथर गया तो अपनी शर्ट कंधे पर रखकर धीरे धीरे चलने लगा। काफी देर तक चलता रहा पता नहीं मंजिल क्या थी उसकी। उसके कदम नगर पालिका के गेट के सामने जाकर रुक गए। अंदर जाकर देखा तो बड़े बाबू किसी से बातचीत कर रहे थे। वही आंगन में खड़ा रहा। शायद चिलचिलाती धूप का कोई असर नहीं था उस पर। जब वो आदमी वहां से चला गया तो उसने बड़े बाबू को वहीं खड़े खड़े कहा- “साहब”।
बड़े बाबू बोले- “ हां आता हूं रुक जा जरा” कहकर अपने कैबिन में चले गए। थोड़ी देर बाद बाहर निकले बड़ी जल्दी में थे। बाहर की तरफ जाने को थे की उसने फिर कहा- “साहब मेरी पगार”
बड़े बाबू झुंझला दिए “क्या है! मैं यहां दूसरे काम में फंसा हूं तुझे पगार की पड़ी है, कल ले जाना” बड़े बाबू बाहर निकल गए।
वह भावहीन मुद्रा में वहीं खड़ा रह गया। सोचा था आज पगार मिल जाएगी लेकिन आज भी खाली हाथ घर लौटने लगा। उसकी बस्ती यहां से दूर थी। पैरों में घिसी हुई चप्पल पहन ने सड़क पर चल दिया लेकिन वह थक गया था और भूखा भी था। एक पेड़ की छाया में बैठ गया। पेड़ के तने से टिक कर उसने आंखें मूंद ली। नींद की आगोश में जाने ही वाला था लेकिन तभी किसी ने पुकारा- “अरे लखन”। थोड़ी दूर से रघु चला आ रहा था। लखन ने उसकी तरफ देखा। रघु भी उस पेड़ के नीचे खड़ा हो गया।
“रघु तू बस्ती गया था क्या? बच्चे स्कूल से आ गए?” लखन ने पूछा।
“अरे मैं तो सुबह का राय बाबू के मकान पर था। छत डलवा रहा हूं, अब आखिर ठेकेदार हूं, काम बहुत हो जाता है। अभी जा रहा हूं घर खाना खाने” रघु ने कहा।
“चल मैं भी चलता हूं। सुखिया मायके गई है, बच्चे तो स्कूल से खाकर आए होंगे। सुबह से कुछ नहीं खाया हूं, तेरे घर ही खा लूंगा।“ लखन ने खड़े होकर कहा।
“अरे मुझे बहुत देर हो जाएगी। आगे बाजार से कुछ लकड़ी-लोहा राय बाबू के घर टेम्पो में पहुंचाना है। तू यहीं कहीं से खरीद के कुछ खा ले” रघु ने कहा और आगे चल दिया और थोड़ी दूर जाकर बुदबुदाने लगा- “गटर साफ करके निकला है। इतनी बदबू मार रहा है। तुझे मैं मेरे घर में खाना खिलाऊँ?”
उधर लखन का जी तिलमिला कर रह गया। उसने शर्ट की जेब में हाथ डाला तो 10रू का एक नोट निकला। वही थोड़ी दूर पर एक समोसे का ठेला पेड़ के नीचे लगा था। जाकर उसने ठेले वाले से कहा “भाई दो समोसे दे दो”।
लखन का शरीर सच में बदबू मार रहा था। आखिर को बेबस आदमी पूरे शहर की गंदगी में डूबकर निकला था। समोसे वाले ने उसे कहा “तू थोड़ी दूर खड़ा हो। मेरे ठेले से मत चिपक” लखन सरक गया।
समोसे वाले ने उसे समोसे दिए। वही खड़े-खड़े उसने झट से दोनों समोसे खा लिए। सुबह कब भूखा लखन समोसे खा कर कुछ राहत महसूस कर रहा था। उसने समोसे वाले से पानी मांगा लेकिन पानी होते हुए भी उसने लखन को मना कर दिया।
लखन को घर का होश आया तो बस्ती की तरफ चल पड़ा। 10 मिनट तक चलने के बाद बस्ती में पहुंचा। देखा तो गली में कुछ बच्चे अंटी खेल रहे थे। 5:00 बज रहे थे लेकिन लखन को पता ही नहीं था आज उसका दिन कैसे निकल गया। सुबह 8:00 बजे का निकला था घर से लेकिन 5:00 बजे जब घर आया तो खाली हाथ। उस दो कमरों के पक्के बने मकान में जैसे ही घुसा उसकी छोटी बेटी जाकर उससे लिपट गई। लेकिन एक झटके में अलग हटकर अपनी नाक सिकोड़ ली। लखन हल्के से मुस्कुरा दिया और सीधे पीछे वाले हैंडपंप पर गया। इस वक्त वहां कोई पानी भरने वाला नहीं होता था। हैंडपंप के मुहाने से बूंद बूंद कर पानी टपक रहा था। उसने खिड़की में से साबुन का पतला सा टुकड़ा उठाया और छोटे लड़के को बुलाकर हैंड पंप चलाने को कहा। लोहे की बाल्टी की खड़खड़ के साथ ऐसे अपने शरीर को साबुन से रगड़ने लगा जैसे आज ही सारी गंध भगा देगा।
“बाबा तुम्हें उस गड्ढे में बदबू नहीं आती?” उसके बेटे ने पूछा।
“बदबू सबको आती है लेकिन मुझे उसकी आदत पड़ गई है। देर से सही लेकिन पगार तो अच्छी मिलती है ना। लेकिन यह काम मैं तुम दोनों को कभी नहीं करने दूंगा। सुखिया और बड़कू रात तक वापस आ जाएंगे। उसे मै रघु के साथ भेज दिया करूंगा। मिस्त्री का काम सीख जाएगा। यदि 9वी में दो बार फेल नहीं हुआ होता तो आगे पढ़कर कुछ अच्छा काम कर लेता” लखन ने उससे कहा। नहाकर लखन ने खाना बनाया और दोनों बच्चों को खिलाया और खुद भी खाकर आंगन में खाट डाल कर बैठ गया।
अंधेरा हो चला था। लखन कुछ सोच रहा था। शायद वही सोच रहा था जो रोज सोचा करता है। रोज उसके साथ गलत व्यवहार होता है। रोज़ कोई ना कोई उससे छुआछूत करता है। आज की सारी बातें उसकी आंखों के सामने आने लगी। बड़े बाबू की फटकार, रघु का व्यवहार और ठेले वाले की दुत्कार।
लखन का मन यही कह रहा था कि “जरा डूब कर तो देखो उस काले पानी में, तब पता चलेगा कि कितनी हिम्मत है मुझमें। जिस दिन तुम लोग उस गटर में उतरने का अनुभव कर लोगे तब तुम्हें समझ आएगा कैसा लगता है। आखिर मेरी गरीबी मेरे बच्चों की जिंदगी नहीं खराब कर सकती इसलिए मैं बरसों से यह सब कर रहा हूं। यह गरीबी तो जात बिरादरी में भी कितना अंतर कर देती है। वो रघु ठेकेदार और मैं गटर साफ करने वाला। चचेरे भाई होकर भी इस गरीबी ने हमारी हैसियत में कितना अंतर कर रखा है। वह स्वतंत्र है और मैं जाति, गरीबी और छुआछूत में जकड़ा हुआ” लखन ने दोनों हाथों से अपना सर पकड़ लिया।
तभी उसका छोटा बेटा एक अखबार के टुकड़े में से कुछ पढ़ने की कोशिश करते हुए आया और बोला “बाबा यह आरक्षण क्या होता है?”
- शिवांगी पुरोहित
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