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Showing posts from 2025

बज़्म-ए-जिगर" की काव्य संध्या में 'तन्हा' की ग़ज़ल ने बाँधा समा

📅 दिनांक: 30 मई 2025 📍 स्थान: मंगलौर, हरिद्वार हरिद्वार के मंगलौर कस्बे में स्थित विधायक क़ाज़ी निज़ामुद्दीन साहब के आवास पर साहित्यिक संस्था 'बज़्म-ए-जिगर' के ज़रिए एक यादगार काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम मुज़फ्फरपुर यूनिवर्सिटी (बिहार) के प्रोफ़ेसर जनाब ऐजाज़ अनवर साहब के सम्मान में रखा गया था। गोष्ठी की अध्यक्षता मुंबई कॉलेज के पूर्व प्राचार्य डॉ. सैयद नुज़ार काज़मी ने की, जबकि संचालन दरगाह हज़रत शाह विलायत के सज्जादा नशीन शाह विकार चिश्ती साहब ने किया। इस मौके पर उत्तराखंड उर्दू अकादमी के पूर्व उपाध्यक्ष व अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त शायर अफ़ज़ल मंगलोरी साहब ने अतिथि शायरों का परिचय कराया और कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई। --- 🌟 'तन्हा' की ग़ज़ल ने समा बाँधा इस कार्यक्रम में जिन शायरों ने अपनी शिरकत से अदबी फ़िज़ा को रौशन किया, उनमें एक नाम था उर्दू शायरी की दुनिया में पहचान बना चुके शायर "तारिक़ अज़ीम 'तन्हा'" का। उन्होंने जो ग़ज़ल सुनाई, उसने महज़ तालियाँ ही नहीं बटोरीं, बल्कि दिलों में गहराई तक असर ...

ना देखूँगा किसी भी नज़र उस के बाद क्या

ना देखूँगा किसी भी नज़र उस के बाद क्या कर लूँगा उससे तंग गुज़र उस के बाद क्या। मैं उसकी उल्फ़तों में तो हो जाऊँगा फ़ना गरचे हुई न उसको ख़बर उसके बाद क्या मैं तो बना भी लूँगा इसी दिल को ताज पर, फिर भी न हो जो उसकी नज़र उस के बाद क्या मंज़िल उदासी है रहे-गिरया है रात भर और है बस अपना शेरो सफर उसके बाद क्या लौटा जो बाद मरने के तनहा' के गरचे वो बाद ए फ़ना ओ बाद ऐ गुज़र उस के बाद क्या जंग का ख़्याल ठीक है पर सोच तो ज़रा उजडेगा इसमें तेरा भी घर, उस के बाद क्या जो इंकिलाब के थे वो हामिल चले गये, धुँधला गयी है तंज़िमें शहर, उसके बाद क्या तारिक़ अज़ीम भूल चुके मैकदे की राह , उनकी नहीं है ख़ैर-ख़बर उसके बाद क्या, तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

Ummeed Ka Aakhiri Charag | Nazm by Tariq Azeem Tanha

नज़्म: तन्हाई की भीड़ दुनिया चीख़ती है। हर तरफ़ हुजूम है। अल्फ़ाज़ो की आँधियाँ है, तस्वीरों की बारिशें है, क़हक़हों का शोर है, और फिर भी दिल एक दम सुनसान है- मैं मुस्कुराता हूँ, हँसता हूँ, महफ़िलों में बैठता हूँ — मगर अंदर कहीं, एक सन्नाटा है, ऐसा सन्नाटा जो शहर के सब बाज़ारों को चुप करा दे। मोबाइल की स्क्रीन पर जगमगाते नाम, पैग़ामात के हुजूम, दिल बहलाने वाले खेल, और फिर भी, हम सब तन्हा है, ख़ाली है, बेचराग़ है, बेचारे है। कहाँ हैं वो ख़त, जो धड़कनों की ख़ुशबूए रखा करते थे? कहाँ हैं वो आँखें, जो सवाल किए बग़ैर समझ जाती थीं? हमने सहूलत के बदले ख़ुलूस बेच डाला है, रफ़्तार के बदले सुकून हार दिया है मुस्कुराहटों के बदले दिलों की गहराइयाँ गुम कर बैठे है। मैं आज भी कभी-कभी चुपके से किसी कोने में बैठ कर अपने दिल को टटोलता हूँ, कि शायद कोई बोसीदा ख़्वाहिश, कोई बिछड़ा हुआ जज़्बा अभी कहीं राख में साँस ले रहा हो। तो, ए मेरे अहद के थके हुए मुसाफ़िरो! कभी फ़ुर्सत मिले तो अपने दिल की गलियों में लौट आना। वहीं कहीं, ख़ामोशी की ओट में, की शायद अभी भी मुहब्बत का कोई चराग़ टिम...

Tanhai Ki Bheed | Tariq Azim Tanha | Azaad Nazm by Tariq Azeem Tanha

नज़्म: तन्हाई की भीड़ दुनिया चीख़ती है। हर तरफ़ हुजूम है। अल्फ़ाज़ो की आँधियाँ है, तस्वीरों की बारिशें है, क़हक़हों का शोर है, और फिर भी दिल एक दम सुनसान है- मैं मुस्कुराता हूँ, हँसता हूँ, महफ़िलों में बैठता हूँ — मगर अंदर कहीं, एक सन्नाटा है, ऐसा सन्नाटा जो शहर के सब बाज़ारों को चुप करा दे। मोबाइल की स्क्रीन पर जगमगाते नाम, पैग़ामात के हुजूम, दिल बहलाने वाले खेल, और फिर भी, हम सब तन्हा है, ख़ाली है, बेचराग़ है, बेचारे है। कहाँ हैं वो ख़त, जो धड़कनों की ख़ुशबूए रखा करते थे? कहाँ हैं वो आँखें, जो सवाल किए बग़ैर समझ जाती थीं? हमने सहूलत के बदले ख़ुलूस बेच डाला है, रफ़्तार के बदले सुकून हार दिया है मुस्कुराहटों के बदले दिलों की गहराइयाँ गुम कर बैठे है। मैं आज भी कभी-कभी चुपके से किसी कोने में बैठ कर अपने दिल को टटोलता हूँ, कि शायद कोई बोसीदा ख़्वाहिश, कोई बिछड़ा हुआ जज़्बा अभी कहीं राख में साँस ले रहा हो। तो, ए मेरे अहद के थके हुए मुसाफ़िरो! कभी फ़ुर्सत मिले तो अपने दिल की गलियों में लौट आना। वहीं कहीं, ख़ामोशी की ओट में, की शायद अभी भी मुहब्बत का कोई चराग़ टिम...

साहिर और जावेद साहब का दिलचस्प वाक़या

एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे मुलाकात के लिए पहुंचे। उस दिन साहिर ने जावेद के चेहरे पर उदासी देखी और कहा, “आओ नौजवान, क्या हाल हैं, उदास हो?”  जावेद ने बताया कि दिन मुश्किल चल रहे हैं, पैसे खत्म होने वाले हैं..  उन्होंने साहिर से कहा कि अगर वो उन्हें कहीं काम दिला दें तो बहुत एहसान होगा। जावेद अख़्तर बताते हैं कि साहिर साहब की एक अजीब आदत थी, वो जब परेशान होते थे तो पैंट की पिछली जेब से छोटी सी कंघी निकलकर बालों पर फिराने लगते थे। जब मन में कुछ उलझा होता था तो बाल सुलझाने लगते थे। उस वक्त भी उन्होंने वही किया। कुछ देर तक सोचते रहे फिर अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज़ में बोले, “ज़रूर नौजवान, फ़कीर देखेगा क्या कर सकता है”। फिर पास रखी मेज़ की तरफ इशारा करके कहा, “हमने भी बुरे दिन देखें हैं नौजवान, फिलहाल ये ले लो, देखते हैं क्या हो सकता है”, जावेद अख़्तर ने देखा तो मेज़ पर दो सौ रुपए रखे हुए थे। वो चाहते तो पैसे मेरे हाथ पर भी रख सकते थे, लेकिन ये उस आदमी की सेंसिटिविटी...

औरंगजेब ने बचाई थी एक पंडित की बेटी की इज़्ज़त

महान शासक औरंगजेब द्वारा किया गया एक ऐसा इन्साफ , जिसे देश की जनता से छुपाया गया l औरंगज़ेब काशी बनारस की एक ऐतिहासिक मस्जिद (धनेडा की मस्जिद) यह एक ऐसा इतिहास है जिसे पन्नो से तो हटा दिया गया है लेकिन निष्पक्ष इन्सान और हक़ परस्त लोगों के दिलो से (चाहे वो किसी भी कौम का इन्सान हो) मिटाया नहीं जा सकता, और क़यामत तक मिटाया नहीं जा सकेगा…।औरंगजेब आलमगीर की हुकूमत में काशी बनारस में एक पंडित की लड़की थी जिसका नाम शकुंतला था, उस लड़की को एक मुसलमान जाहिल सेनापति ने अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा, और उसके बाप से कहा के तेरी बेटी को डोली में सजा कर मेरे महल पे 7 दिन में भेज देना…. पंडित ने यह बात अपनी बेटी से कही, उनके पास कोई रास्ता नहीं था और पंडित से बेटी ने कहा के 1 महीने का वक़्त ले लो कोई भी रास्ता निकल जायेगा…। पंडित ने सेनापति से जाकर कहा कि, “मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं के मैं 7 दिन में सजाकर लड़की को भेज सकूँ, मुझे महीने का वक़्त दो.” सेनापति ने कहा “ठीक है! ठीक महीने के बाद भेज देना” पंडित ने अपनी लड़की से जाकर कहा “वक़्त मिल गया है अब?”लड़की ने मुग़ल सहजादे का लिबास पहन...

Aurangzeb’s Tomb: A Political Pawn or a Progress Blocker?" औरंगज़ेब की कब्र: राजनीतिक मोहरा या प्रगति में रुकावट?

औरंगज़ेब की कब्र: राजनीति का खिलौना या प्रगति में रुकावट? औरंगज़ेब, मुगल साम्राज्य का छठा बादशाह, 1707 में मर गया था, लेकिन उसकी साधारण सी कब्र आज भी भारत में हलचल मचाए हुए है। महाराष्ट्र के खुल्दाबाद में स्थित यह कब्र कुछ राजनीतिक दलों और समूहों के लिए विवाद का केंद्र बन गई है। कुछ इसे "मुगल अत्याचार" का प्रतीक मानकर हटाने की मांग कर रहे हैं, तो कुछ इसे इतिहास का हिस्सा बताकर बचाव कर रहे हैं। सवाल यह उठता है कि क्या औरंगज़ेब मरने के बाद भी भारत की तरक्की में रोड़ा बना हुआ है? या फिर यह सब खोखले राष्ट्रवाद का दिखावा है, जिसे कुछ पार्टियाँ अपने फायदे के लिए भुना रही हैं? आइए, इस मुद्दे को गहराई से समझें—आज की राजनीति, औरंगज़ेब के समय भारत के पास कितना धन था, और आज की स्थिति क्या है। कब्र को लेकर आज की सियासत औरंगज़ेब का शासन (1658-1707) अपने समय में विशाल और शक्तिशाली था, लेकिन विवादों से भरा भी था। उसने गैर-मुस्लिमों पर जज़िया कर फिर से लागू किया, कुछ मंदिरों को तोड़ा, और सख्त इस्लामी नीतियाँ अपनाईं, जिसके चलते वह इतिहास में एक ध्रुवीकरण करने वाला शासक बन गया। आज, 2025 में, उ...

मदरसा शिक्षा में AI और फ्यूचर स्किल्स की ज़रूरत

मुसलमानों को बस यह प्रण लेना है कि जिस मदरसे में AI नहीं सिखाया जा रहा वहां चंदा नहीं देंगे भारत में मुसलमानो का मदरसा सिस्टम फीस से कम और चंदा से ज्यादा चलता है। एक अलिखित और अनौपचारिक नियम यह है कि  " हे मुसलमानों, हम मदरसा का देख रख करने वाले सभी उस्ताद तुम्हारे मुस्लिम समाज के गरीब बच्चों को खाना, रहना और शिक्षा देते है। यह बच्चे कल धार्मिक नेतृत्व को संभालेंगे और तुम्हारे लिए मस्जिदों में इमाम बनकर धर्म की खिदमत करेंगे। तुम अपना बच्चा तो धर्मगुरु बना नहीं रहे हो और इनके मां बाप, जो अभी गरीब है इनको कुछ भी बनाने की काबिलियत नहीं रखते, यदि ऐसा कुछ जेनरेशन चला तो तरावीह में कुरान पढ़ने वाला नहीं मिलेगा, मस्जिदों में इमाम नहीं मिलेगा और तुम सभी धार्मिक लिहाज से अनाथ हो जाओगे इसलिए तुम्हें चाहिए कि तुम इन बच्चों की फीस हमे दो हम इनको पढ़ाएंगे, लिखाएंगे, दीन की शिक्षा देंगे और समाज को धर्मगुरु देंगे" यही एक कारण है कि मुसलमान इस देश में टैक्स के साथ मदरसे में चंदे भी देता है। मुझे इस सिस्टम से कोई दिक्कत नहीं है बल्कि जो ऐसा कर रहा है वह मेरे लिए बहुत एहतराम का मका...