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अज्ञेय, ग़ालिब और यूरोपीय लेखकों का सामजंस्य

'शेखर: एक जीवनी' पढ़ते हुए एक प्रसंग आता है। शेखर अपनी बीमार पड़ोसी शान्ति के बगल में बैठा और जब शान्ति पूछती है कि जब मैं तुम्हें देखती हूँ तो तुम भाग क्यों जाते हो? शेखर चुप रहता है। लेकिन शांति के बार-बार पूछने पर शेखर उससे कहता है कि उसके पास एक तस्वीर है, एक पेंटिंग जो शान्ति के जैसी दिखती है। फिर उठता है और अपने घर से वो तस्वीर लेकर आता है। शान्ति उसे देखती है और कहती है उसके पास भी ये तस्वीर है। ये तस्वीर थी रोज़ेत्ती की 'बिएटा बिएट्रिक्स' (Beata Beatrix) जिसे 'मृत्यु का वैभव' (The Glory of Death) भी कहा जाता है। 

इतालवी मूल के अँग्रेज दान्ते गैब्रियाल रोज़ेत्ती (Dante Gabrial Rossetti) ने 1830 में इस चित्र को बनाया था। रोज़ेत्ती यूरोपीय कलाजगत में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के एक महत्वपूर्ण चित्रकार और कवि थे। रोज़ेत्ती 'रफ़ाएल पूर्व भ्रातृसंघ' (Pre-Rafaelite Brotherhood) के सदस्य थे। इस संगठन के एक सदस्य इनके भाई विलियम माइकल रोज़ेत्ती (William Michael Rossetti) भी थे जो खुद एक चित्रकार और कवि थे। साथ ही इनकी बहन क्रिश्चियाना (Christiana) और इनकी बीवी एलिज़ाबेथ सिडल (Elizabeth Siddal) भी कवियत्री और कलाकार रहीं। 

एलिज़ाबेथ सिडल की मौत उनकी शादी के दो साल बाद ही अफ़ीम की अधिमात्रा में सेवन से हुई थी। इसी मृत्यु को सामने रखकर उस तस्वीर को बनाया गया था जिसका नाम 'The Glory of Death' है। 

दान्ते रोज़ेत्ती ने इस चित्र का नाम बिएटा बीएट्रिक्स रखा था। बीएट्रिक्स रोज़ेत्ती के ही हमनाम और तेरहवीं सदी के विचारक कलाकार दान्ते अलिघेरी (Dante Alighieri) की कृति 'La Vita Nuova' (नया जीवन) का एक चरित्र है। न केवल चरित्र है बल्कि उसी पर पूरा काव्य उसी के इर्दगिर्द घूमता है। बिएट्रिक्स का चरित्र असल में एक स्त्री बिएट्रिस पोर्टिनेरी (Beatrice Portinari) पर आधारित है जो दान्ते अलिघेरी की जीवन पर्यन्त की प्रियसी रही।

बिएट्रिस 'La Vita Nuova' के साथ-साथ दान्ते की विश्वप्रसिद्ध अमरकृति 'दैवीय हास्य' (The Divine Comedy) में दान्ते को 'Purgatorio' के आख़िर से लेकर पूरे 'Paradiso' में मार्गदर्शक का काम करती है। 'The Divine Comedy' तीन भागों में है जो क्रमशः 'Inferno' (नरक), 'Purgatorio' (यातना), 'Paradiso' (स्वर्ग) हैं। इनमें से होकर ही दान्ते यात्रा करता है। 

रोज़ेत्ती ने इसी बिएट्रिक्स की मृत्यु के क्षण का चित्र बनाया था। परन्तु जो चेहरा उभर कर आया था वो उसकी पत्नी का था, एलिज़ाबेथ सिडल का। एलिज़ाबेथ सिडल खुद भी एक कलाकार थी और रोज़ेत्ती के साथ-साथ कई समकालीन चित्रकारों के लिए मॉडल भी थी। तो रोज़ेत्ती ने अलिघेरी की कविता में वर्णित बिएट्रिक्स की मृत्यु के चित्र में अपनी पत्नी के चेहरे के साथ उसकी मृत्यु को चित्रित कर दिया। दान्ते रोज़ेत्ती ने इस चित्र में अपनी प्रियसी और दान्ते अलिघेरी की प्रियसी को सर्वांगसम कर दिया। 

रोज़ेत्ती के इस चित्र में बिएट्रिक्स के हाथ में एक 'लाल डव अफ़ीम के सफ़ेद फूल' को रख रहा है। ये लाल फ़ाख्ता मृत्यु का प्रतीक है जो बिएट्रिक्स के हाथ में अफ़ीम दे रहा है जो उसकी मौत का कारण बना। बिएट्रिक्स की आँखें बन्द हैं और उसके चेहरे के चारों तरफ एक रोशनी की परत जैसी दिखाई पड़ती है मानो कोई आभामंडल हो। पीछे की पृष्ठभूमि सुनहरे पीले रंग की है, जो यूरोपीय चित्रों में स्वर्ग का प्रतीक है। रोज़ेत्ती ने ये चित्र कैनवस पर तैलीय रंगों से बनाया था परन्तु देखने में ऐसा लगता है जैसे मोम के रंगों द्वारा बनाया गया हो। 

रोज़ेत्ती ने विलियम मॉरिस से एक पत्र में इस चित्र को 'अवचेतनता अथवा आध्यात्मिक रूपांतरण' के बिम्ब के रूप में व्यक्त किया। कला विशेषज्ञ आगे कहते हैं कि रोज़ेत्ती ने अपने चित्र में अपनी पत्नी की मृत्यु को शोक के स्थान पर एक शांति के साथ व्यक्त किया है। मृत्यु को अंत के रूप में न देखकर एक नई यात्रा की शुरुआत के रूप में देखा है, एक नए जीवन के रूप में व्यक्त किया है। बिएट्रिक्स उस 'सक्रान्ति' को प्रदर्शित करती है जो बिना वेदना के जीवन से मृत्यु की ओर प्रवाहित होती है। यहां मृत्यु शोक नहीं है। गौरतलब है कि दान्ते कि कविता का नाम भी 'La Vita Nuova' (नया जीवन) ही है। Beata का इतालवी भाषा में अर्थ होता है धन्य, खुशनसीब या सुखी। इसी कारण इस चित्र का एक और नाम 'The Glory of Death' भी है। रोज़ेत्ती ने जो बिएट्रिक्स बनाई वो Blessed थी, Blessd Beatrix, Beata Beatrix।

शेखर जब शान्ति को ये चित्र दिखा रहा था तब शांति उसे देखकर कहती है कि किसी रोज ये ग्लोरी, मृत्यु का ये वैभव मेरा होगा। कुछ समय बाद शान्ति की मौत हो जाती है। आगे भी एक प्रसंग में जब शेखर की माँ की मृत्यु होती है तब भी शेखर को शान्ति की याद आती है वो उसी चित्र में शान्ति की कल्पना करता है। ग्लोरी ऑफ डेथ की कल्पना करता है।

अब आगे की बात। 

बनारस के पंचायती अखाड़ा घाट पर रखी सीमेंट की कुर्सियों पर बैठकर और सामने बनी रेलिगों पर पैर पसारकर मैंने कहा, "स्मृति मनुष्य को मिले भयानक उपहारों में दूसरे स्थान पर आता है। जीवन का अर्थ समझने की इच्छा पहले स्थान पर रहती है।" शिव कुमार बटालवी ने जीवन को 'स्लो सुसाइड' कहा है। सत्य ही है, जो भी सोच सकता है, चिंतन कर सकता है, जीवन उसके लिए एक शूल है। 

मनुष्य का जीवन दिक् और काल (Space & Time) की विशालता के सम्मुख हास्यास्पद रूप से नगण्य है। ब्रह्माण्ड को बने '13.8 अरब साल' के लगभग हो चुका है। मनुष्य का पूरा का पूरा इतिहास इस समयावधि में कितनी प्रासंगिकता रखता है? ज्ञात ब्रह्माण्ड का व्यास '93 अरब प्रकाशवर्ष' है। और पूरी पृथ्वी ही इस बृहत ब्रह्माण्ड में कितनी सार्थक है? मनुष्य का जीवन कितना ही मायने रखता है? और कितनी ही मायने रखती है उसकी मृत्यु?

लोग मृत्यु के विचार से, उसकी चर्चा से, उसके वर्णन से बचते रहते हैं। यक्ष ने भी जब युधिष्ठिर से सबसे बड़ा आश्चर्य पूछा तो कौन्तेय का उत्तर भी यही था कि हर क्षण मानव जिस शाश्वत सत्य को देखते रहते हैं फिर भी स्वयं उससे बचते रहते हैं। मैंने खुद से प्रश्न किया लोग कब आत्महत्या करते हैं? कब इंसान उस मनोदशा में पहुँच जाता है जब वो जीवन को खत्म कर मृत्यु को अंगीकार कर लेता है? 

आदमी का जीवन दिक् और काल के बड़े मानकों में भले ही छोटा हो पर उसके लिए बहुत होता है। या शायद इतनी निरर्थकता के कारण ही इंसान की मूलभूत वासना होती है, हवस होती है, खुद को कुछ सिद्ध करने की। पूरा इतिहास इसी हवस को पाने के लिए किए गए कामों से भरा पड़ा है। लोगों ने क्या कुछ असंभव नहीं कर डाला। जब मनुष्य को ऐसा लगता है कि उसके पास कुछ है! वो खुद कुछ है! उसके जीवन के कुछ मायने हैं! तब मनुष्य भय में होता है। उन सारी चीजों के खोने के भय में। उन चीजों के कुछ मायने खो जाने पर, उन चीजों के खो जाने पर आदमी विचलित हो जाता है। जीवन निरर्थक हो जाता है। आदमी खुद को खत्म कर देना चाहता है। कई बार कर भी देता है। 

दूसरी तरफ क्या हो जब आदमी अपने जीवन का कोई अर्थ न माने? उसके पास ऐसा कुछ न हो जो उसके हिसाब से उसके लिए बहुत मायने रखता हो? भले ही लोगों के हिसाब से उसके जीवन में कहने के लिए बहुत कुछ हो। उसे जीवन से कोई विशेष समस्या भी न हो परन्तु जीवन से कोई खास प्रेम भी न हो। जो आदमी स्वयं के हिसाब से शून्य पर खड़ा हो। न ही शून्य से नीचे कि दुख हो। न शून्य से ऊपर हो जिसका खोने का कोई दुख हो। इस स्थिति में भी आदमी अपने जीवन को खतम कर देना चाहता है। जीवन के अनावश्यक बोझ से मुक्त हो जाना चाहता है। और अगर इतना न कर सके तो कम से कम अस्तित्व के भौंडेपन से तो दूर ही हो जाना चाहता है।

आदमी भाग जाना चाहता है हर उस चीज से जो उसको उसके होने का अनुभव कराती हो। उसका नाम, कुल, भाषा। वो पहचान के चंगुल से मुक्त हो जाना चाहता है। किसी बड़े पहाड़ की तराई के नीचे एक नीली बहती नदी के किनारे छोटे-बड़े पत्थरों से बना एक कमरा हो। और शांति से आदमी एक दिन वहीं मर जाए। उसे मरते समय 'कुछ अभी भी रह गया' की वेदना न हो। ऐसी मृत्यु को मैंने उपलब्धि कहा था। इसे मैंने नाम दिया था - 'मृत्यु की सुलभता' (The Fancy of Death)।

मैंने सोचा था इसके ऊपर बहुत कुछ लिखूँगा। पर एक रोज मैंने ग़ालिब को पढ़ा और मेरे होश फ़ाख्ता हो गए। इस आदमी ने वो सब जो मैं शायद पन्ने पर पन्ने भर देने पर भी ढंग से नहीं लिख पाता वो इस आदमी ने एक-दो शेरों में कह डाला। शेर हैं - 

"रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो 
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो 

बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए 
कोई हम-साया न हो और पासबाँ कोई न हो 

पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार 
और अगर मर जाइए तो नौहा-ख़्वाँ कोई न हो "

यही तो था 'Fancy of Death', आसानी की मौत। यही है जो ग़ालिब को अव्वल बनाता है। ग़ालिब को पढ़ना खुद को अंगारों पर चला देना है मगर शर्त है कि लगातार हँसना है। ग़ालिब का काव्य तीर जैसा लगता है, मगर पार नहीं करता। नीर-ए-नीमकश!

खैर मेरा चिंतन जारी रहा। मैं जब अल्बैर कामु (Albert Camus) की 'अजनबी' (L'Étranger) पढ़ रहा था तो गौर किया कि मुख्य चरित्र जीवन में खास दुखी नहीं है। परन्तु विचित्र किस्म की नीरसता से भरा हुआ है। उसकी महिला परिचित जिसके साथ वो दैनिक स्तर पर सो रहा है जब उसको विवाह के लिए पूछती है तो वो तुरन्त राजी हो जाता है। वह स्वीकार करता है वो प्रेम जैसा कुछ अनुभव नहीं करता और विवाह केवल इसलिए कर रहा है क्योंकि वो चाहती है। अगर कोई और औरत ये चाहती तो वो उसके साथ भी राजी हो जाता। उसकी माँ के मरने पर वह किसी तरह के दुख को या क्षति को अनुभव नहीं कर रहा है। वह अपनी माँ की लाश को देखने का भी इच्छुक नहीं है। गौरतलब है कि वो ये सब घृणा के कारण नहीं कर रहा है। 

लेकिन कामु ने ही लिखा है - "हर किसी को सिसिफ़स को प्रसन्न मानना होगा।" सिसिफ़स उस आधुनिक मानव का प्रतीक है जो हर रोज एक ही लीक की नैराश्य और नीरसता से भरी ज़िन्दगी जी रहा है। दूसरी तरफ विक्टर फ्रैंकल (Viktor Frankl) जैसे विचारक हैं जो कहते हैं कि मानव जीवन की समस्या उसका अर्थहीन होना नहीं बल्कि उसका इतना अधिक अर्थों से भरा होना है कि मानव मस्तिष्क के पास उन्हें समझने की क्षमता ही नहीं है। फ्रैंकल ने इसे 'लोगोस' (Logos) कहा है। लोगोस यानि डिवाइन लॉजिक, या दैवीय तर्क। 

लेकिन मैंने समझ को इनके मध्य या इनके इतर कहीं पाया। इसके लिए वही प्रश्न दिमाग में है जो मैंने खुद से पूछा था - कब इंसान उस मनोदशा में पहुँच जाता है जब वो जीवन को खत्म कर मृत्यु को अंगीकार कर लेता है? मुझे लगता है जब मनुष्य को उसकी अनुपस्थिति उसकी उपस्थिति से श्रेयस्कर 
लगने लगती है तब वह खुद को नष्ट कर देता है। जब आदमी को लगे कि अन्य के जीवन में उसके होने या न होने से कोई अन्तर नहीं होगा तब वो खुद को खत्म कर देता है। संघर्ष आदमी का खुद का होता है। दुख आदमी का खुद का होता है। परन्तु उससे कोई ये कह दे कि 'मैं हूँ!', तो आदमी क्या कुछ नहीं झेल जाता?

आदमी के अस्तित्व का सबसे बड़ा अवयव उसकी पहचान है, उसकी आईडेंटिटी। वो उसे खुद से नहीं मिलती है। उसे दी गई होती है। और प्रत्येक वस्तु की एक कीमत होती है, जिसे किसी न किसी रूप में कभी न कभी चुकाना होता है। यही जीवन का सही अर्थ है। आपका जीवन आपका नहीं होता। आपके जीवन पर केवल आपका अधिकार नहीं होता कि आप उसे नष्ट कर सकें। हर उस व्यक्ति या संस्था का आप पर अधिकार होता है जो आपके अस्तित्व से जुड़ा हुआ है। हर कष्ट को झेलकर और अधिक शक्तिशाली हो जाना ही पौरुष है। 

खैर मृत्यु पर चिंतन और चर्चा चलती रहनी चाहिए। ग़ालिब मौत पर लिखने में अदभुत हैं। ग़ालिब मौत पर लिखते हैं और ठसक में लिखते हैं। उसके ऊपर अलग से लिखा जा सकता है। आखिर जीवन में दम्भ का होना भी मजेदार है। मृत्यु तो वैसे भी सारे दम्भ निगल जाती है। और जीवन में इसके अलावा रखा ही क्या है?!

- तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

तस्वीर विवरण
पहली तस्वीर सच्चिदानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की है, कहते हैं कि शेखर: एक जीवनी खुद अज्ञेय के जीवन से प्रभावित है।

दूसरी तस्वीर दान्ते रोज़ेत्ती द्वारा बनाई गई मशहूर तस्वीर बिएटा बीएट्रिक्स है। दान्ते रोज़ेत्ती ने इस चित्र में अपनी प्रियसी और दान्ते अलिघेरी की प्रियसी को सर्वांगसम कर दिया।

तीसरी तस्वीर हेनरी हॉलिडे द्वारा बनाया गया दान्ते और बिएट्रिस की तस्वीर है।

चौथी तस्वीर में सिसिफ़स उस आधुनिक मानव का प्रतीक है जो हर रोज एक ही लीक की नैराश्य और नीरसता से भरी ज़िन्दगी जी रहा है।

पांचवीं तस्वीर चाँदनी चौक की बल्लीमारान गली में ग़ालिब की हवेली में रखी ग़ालिब की प्रतिमा की है।

छठी तस्वीर में ग़ालिब का एक प्रसिद्ध शेर है।

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