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सपनों की बाजारें, गुटबाजी और कविमंचों की दुकानदारी

कविलोक भी क्या अद्भुत है और क्या ही विशिष्ट एवं विरले व्यक्तित्व आप से दोचार होते हैं। आप कवि हैं, यानि आप सपने देखते ही होंगे बड़े बड़े मंचों से काव्यरस की फुहारें बरसाने के लिये। आपके अंदर का कवि अवश्य ही उमड़ पड़ता होगा लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच खड़े होकर आभार प्रकट करने का। फूल माला, कैमरा, फैन फॉलोविंग और ऑटोग्राफ लेते हुए हुजूम के मध्य स्वयं के स्टारडम को महसूस करने उसे जीने और उसका आनंद उठाने का स्वप्न देखते ही होंगे। बड़ी बड़ी रकमों से भरे लिफाफे और उनके रास्ते आता वैभव और विलास भी आपके सपनों का हिस्सा अवश्य ही होगा। ऐसी आम धारणा तमाम मंचासीन वरिष्ठ सहज़ ही बना लेते हैं और इसके साथ आरम्भ होता है सपनों के बाजार सजाने का जहाँ आपके प्रातिभ, काव्य कौशल को एक बड़ा स्वप्निल मूल्य दिखाया जाता है जिसकी आमद भविष्य के गर्भ में होती है बस उसके लिये आपको झोंकना पड़ सकता है अपना सर्वश्व, जिसमें हो सकता है आपका स्वाभिमान, आपके सिद्धांत, आपकी मौलिकता और न मालूम क्या क्या? सपनों की बाजारें क्रय-विक्रय का मौखिक अनुबंध कर भविष्य के हाथ सौंप देते हैं लेन देन जो कालांतर में स्वप्न विक्रेता या क्रेता द्वारा निर्ममतापूर्वक तोड़ा भी जा सकता है किन्तु उसमें हानि एकतरफा ही होती है। लेकिन एक बात उल्लेखनीय है कि सपने सब देखते हैं, किन्तु हो सकता है कोई यह सपने कवि मंच के इतर अन्य माध्यम से पूरा करना चाहता हो एवं उसका माद्दा रखता हो, वहाँ यह प्रयास व्यर्थ सिद्ध हो सकता है। ये तो है सपनों के बाजार की हकीकत है।



अब एक बात विशेष रूप से समझ लीजिये, यदि आप कवि हैं तो किसी न किसी बड़े मंचीय कवि-खलीफा के गुट का हिस्सा अवश्य होंगे ऐसा स्वतः ही मान लिया जाता है। यदि आप अपने आस पास के बड़का कवि के गुट का हिस्सा नहीं है ऐसा सिद्ध हो जाता है तो दूरस्थ कवि का गुरुत्वाकर्षण अनायास ही बहुगुणित होकर आप और आपके समीपस्थ स्वप्न देखने वाले तमाम कवियों को महसूस होना आरम्भ हो जायेगा। यह बहुत आम बात है, जबकि आप भी इसे महसूस करेंगे किन्तु वह आकर्षण जिस माधुर्य के साथ आप पर आ पड़ेगा कि आप बरबस खिंचे चले जाते हैं.. यह कविलोक का बहुत प्रचलित चलन है। ख़ैर चलन तो चलन है, अपन को इससे क्या? हम तो बस इसके स्वरूप की विवेचना मात्र करके तमाम मठाधीशों का सांकेतिक चित्रण करने का प्रयास मात्र करेंगे। हाँ एक बात और, हर कवि किसी गुट का हिस्सा हो ज़रूरी नहीं..हो सकता है, कोई अपने आप में एक गुट हो, न काहू से दोस्ती न काहू से बैर टाइप वाला, ऐसे में यह प्रयास व्यर्थ हो सकता है।

कविमंच पर स्थापना के बाद आरम्भ होता है सिलसिला संयोजन का, जिसके पास जितने संयोजन वह उतना बड़ा कवि उसकी उतनी पहुँच और सपने बेचने का उसे उतना ही ज्यादा अधिकार। बड़े जुगाड़ और राजनैतिक-प्रशासनिक पहुँच वाले व्यक्ति बड़े संयोजक के रूप में ख्याति प्राप्त करते हैं। क्योंकि यहाँ हींग लगे न फिटकरी रंग चढ़े चोखा' वाला हिसाब रहता है, कार्यक्रम सरकारी हो तो असफल होने की गुंजाइश ही नहीं है दोस्त क्योंकि लिफाफों के वजन पर कोई फर्क पड़ना नहीं और श्रोताओं के बारे में आयोजक समिति उतना ही सोचती है जितना राजनैतिक दल जनता का हित चाहते हुए सरकार में अपना कार्यकाल पूर्ण करते हैं। बड़ा संयोजक चूंकि मंच की दुकानदारी का अधिकार रखता है इसलिए वह इस अधिकार का प्रयोग बड़ी कर्त्तव्यनिष्ठा के साथ करता है जहाँ उपलब्ध संसाधनों का हरसंभव दोहन कर अधिकाधिक लाभ प्राप्त किया जा सके।

और इस सबके बीच कहीं मर रही होती है कविता और साहित्य की मूल आत्मा, कहीं दम घुट रहा होता है लोक को दिशा दर्शन कराने की भावना का और कहीं न कहीं साथ छोड़ रही होती है उस कवि की मौलिकता जो इस चक्रवात में फँसकर माँ भगवती लक्ष्मी के यज्ञ अनुष्ठान में आहुति दे रहा होता है हंसवाहिनी वीणापाणि माँ शारदे की। इस चक्रव्यूह संरचना में तमाम अभिमन्युओं की आहुति लेने के उपरांत कोई महाकवि कर रहा होता है साहित्यिक चिंतना और समाचार पत्रों में छापता है कि 'साहित्य का भविष्य उज्ज्वल प्रतीत नहीं होता।'

सच तो यही है.. बाकी अपना अनुभव अपनी कहानी, हो सकता है वह आप, आप न हों.. आप अपवाद भी हो सकते हैं। क्योंकि हर कविता रचने वाला व्यक्ति कवि हो आवश्यक नहीं कुछ बस कवि-मन होते हैं।

#बस_इतनी_सी_बात_है
#कविताई_का_नया_दौर 


तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

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