कुछ लोगों के ग़ज़ल सोचने का और लिखने का तरीक़ा धुन से जुडा होता है। मतलब कुछ ग़ज़लियात जो धुनों पर पर गाई जा चुकी हैं उन्हें गुनगुनाते हुए उसी लय पर और उसी बह्र में उनकी ग़ज़ल बन जाती है। यह तस्लीम-शुदा तरीक़ा है। इससे ग़ज़ल में रवानी भी आती है। इसमें एक ही छोटी सी दिक़्क़त यह होती है कि इनमें से बहुत से शोअरा उस बह्र में लिख नहीं पाते जिसे वह किसी धुन पर गुनगुना नहीं पाते। यह भी कोई इतना बड़ा मसअला नहीं है। ज़ियादातर शोअरा की ग़ज़लियात कुछ गिनी-चुनी बहूर में ही होती हैं, ऐसी बहूर जिनकी लय उनकी रूह में बस जाती है।
मगर इन शोअरा में कुछ ऐसे हैं जो धुन पर लिखने के बा'द फिर वह ग़ज़ल बह्र में है या नहीं यह देखने की भी सलाहियत नहीं रखते, और अना इतनी है कि कोई बता दे कि भाई बह्र की ग़लती हुई है तब भी क़ुबूल नहीं करेंगे, कहेंगे "बकवास... पढ़ते वक़्त बिल्कुल कोई भी सकता नहीं लगा तो बे-बह्र कैसे हो गयी?" भई ख़ुश रहें, जैसा भी चाहे लिखें। कोई मसअला नहीं।
अब आप पूछेंगे कि फिर मसअला क्या है? मसअला है वह शोअरा जो समझते हैं कि जिस ग़ज़ल को वह ख़ुद किसी धुन में बिठा नहीं सकते वह ग़ज़ल दरअस्ल ग़ज़ल है ही नहीं है। मसअला तब होता है जब ऐसे 'शोअरा' जिनकी दुकान चार धुनों पर चल रही है, जिनको बह्र का इल्म नहीं, जिनके लिए ग़ज़ल सिर्फ़ एक लहजे से बढकर कुछ भी नहीं, वह दूसरों की ग़ज़लियात पर तब्सिरा करने बैठ जाते हैं...इनकी ग़ज़ल में नग्मगी नहीं है... इनका लहजा ग़ज़ल का नहीं है... इनकी ग़ज़ल गायी नहीं जा सकती... इनको क्या मालूम तग़ज़्ज़ल क्या है .....
अब कोई उस्ताद यह सब कहे तो उसका हक़ बनता है मगर मज़े की बात यह है कि यह सब वह कह रहे हैं जिनको इन सब के बारे में ख़ुद कुछ पता नहीं। चार सवाल पूछ लीजिए धराशाई हो जाएँगे। फिर तुर्रा यह होगा कि 'यार कितने उस्तादों को सुना है हमें मत बताओ ग़ज़ल क्या होती है।'
अब जो पुराने जानकार लोग है वह इन ख़ाली बर्तनों को जानते हैं। इसलिए जैसे ही यह बजने लगते हैं वह कान बंद कर लेते हैं। फँस जाते हैं जवान शोअरा। यह बच्चे बहुत अच्छा लिख रहे हैं। दौर-ए-हाज़िर के लहजे को, अलामतों को, इस्तिआरात को बड़ी ख़ूबी से रक़म कर रहे हैं। यह बच्चे तजरबे की भी बड़ी इज़्ज़त करते हैं इसलिए इन ख़ाली बर्तनो की खड खड को भी दिल से लगा लेते हैं। इसमें ख़तरा यह होता है कि इनको सुनने के बा'द, बिला वज्ह, यह बच्चे अपने उल्सूब, अपने मुन्फ़रीद लहजे को दबा कर वैसा लिखने की कोशिश करने लगते हैं जैसा इन तथाकथित 'जानकार' लोगों ने कहा, जब कि इन 'जानकार' लोगों का एक भी शे'र कभी लोगों की ज़बान पर नहीं चढ़ा और इन बच्चों के जाने कितने अशआर लाखों लोगों को याद हैं।
जवाँ शोअरा को ऐसे लोगों से बचाते रहना ज़रूरी है।
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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