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Manish Kumar 'The Kahaniyaan Wala' & His Wife In a Function of Poetry | Kahaniyan Wala | Manish Kumar

बीती शाम बड़ी शायराना थी। ‘जश्न-ए-अदब’ की महफ़िल में शिरकत की गई। यूँ तो मोहतरमा के साथ कई जगह कविताएँ पढ़ी गई हैं ग़ज़लें सुनी गई हैं मगर एक पूरी शाम मुशायरा देखने का मौक़ा पहली बार था। 
मुशायरे से पहले क़व्वाली सुनी गई। कोई नामुराद ही होगा जिसने अब तलक ‘काली काली ज़ुल्फ़ों के फंदे न डालो’ नहीं सुना होगा। पहले जब सुनते थे तो गुनगुनाते थे 


“न छेड़ो हमें हम सताए हुए है
बहुत जख्म सीने पे खाए हुए है
सितमगर हो तुम खूब पहचानते है
तुम्हारी अदाओ को हम जानते है
दगा बाज़ हो तुम सितम ढाने वाले
फरेबे मोहब्बत में उलझाने वाले
ये रंगी कहानी तुम्ही को मुबारक
तुम्हारी जवानी तुम्ही को मुबारक
हमारी तरफ से निगाहें हटा लो
हमें जिंदा रहने दो ऐ हुस्न वालो”

और कल होंठों ने गुनगुनाया 

“बन सँवर कर वो जब निकलते हैं 
दिलकशी साथ साथ चलती है
हार जाते है जितने वाले
वो नज़र ऐसी चाल चलती है
जब हटाते है रुख से जुल्फों को
चाँद हस्ता है रात ढलती है
क्या क़यामत है उनकी अंगड़ाई
खीच के गोया कमान चलती है
काली काली जुल्फों के फंदे ना डालो
हमें जिंदा रहने दो ऐ हुस्न वालों”

गीत गाते रहे और कभी कनखियों से तो कभी आँखों में आँखें डाल शर्माते और मुस्कुराते रहे। मोहतरमा भी हँसती रहीं। गुनगुनाती रहीं। मोहब्बत के मानी ऐसे ही लम्हों में खुलते जाते हैं। 
शादी के फ़ैसले पर थोड़ा और नाज़ होता गया।
क़व्वाली के बाद मुशायरा हुआ जिसमें हिंदी के कवि और उर्दू के शायर दोनों ही मौजूद थे। 
बहुत से शेर ऐसे पढ़े गये जो हाथ पकड़कर घर तक आ गए। हिंदी के नामी कवियों ने ख़ासा निराश किया। अशोक चक्रधर पर ग़ुरूर बिलकुल नहीं फबता। सुरेंद्र शर्मा के हास्य व्यंग्य को फेमिनिज्म की दृष्टि से देखूँ तो उनको लताड़ा जा सकता है। लोक प्रचलित चुटकुले सुनाने से अगर पद्मश्री मिलता है तो मेरे गाँव के बूढ़े पद्मश्री को बाट बनाकर सब्ज़ी तौलते फिरते दिखाई देने चाहिए थे। 
ऑडियंस हद दर्जे की बेवक़ूफ़ नज़र आयी। मिसोजनिस्ट लाइनों पर कहकहे लगाते चेहरे नज़र आये। अनस फ़ैज़ी (तथाकथित शायर) पूरे दिन मेज़बानी करते हुए उर्दू बोलते रहे और अपने कलाम(जिसे वो कलाम समझते हैं) में उर्दू ज़बान की ख़ूबसूरती को ज़मीन में गहरे दफ़्न कर दिया। 
कुंवर रणजीत चौहान की बेबाक़ी और स्टेज प्रजेंस बहुत पसंद आयी। एक ऑर्गनाइज़र की शक्ल में रणजीत चौहान को देखकर लगता है कि उर्दू अभी बहुत आगे तक सफ़र करेगी। 
वसीम बरेलवी को सामने से सुनकर देखकर पहला ख़याल यही आया कि मैं खुशनसीब हूँ जिसने स्वदेश दीपक और मंटो साहब को उनके आख़िरी वक़्त में नहीं देखा। वसीम बरेलवी जी से मैं उतना गहरा नहीं जुड़ा हूँ जितना मंटो साहब और स्वदेश दीपक साहब से जुड़ा हूँ लेकिन उर्दू अदब को इतने सालों तक अपने कंधे पर रख आसमान दिखाने वाला शख़्स जब शेर पढ़ते पढ़ते रोने लगे और हाँफने लगे तो दिल में कुछ टूट जाता है। 
वसीम साहब ने दो ग़ज़लें पढ़ी और फिर हाज़िरीन
से माफ़ी माँगी कि मेरी तबियत नासाज़ है मैं आगे नहीं पढ़ पाऊँगा। इतना सुनना भर था कि सुनने वाले वसीम साहब की मोहब्बत में चिल्ला उठे कि आप और पढ़ें। 
एक शायर के लिए इतनी मोहब्बत देखकर ज़हन में कोई तो ख़ुशगवार बहार बहने लगी। 
वसीम साहब ने भी इतनी मोहब्बत देखकर अपने जिस्म की हदबंदी तोड़ते हुए फिर से ग़ज़लें पढ़ी।
उर्दू अदब का इतना बड़ा शायर स्टेज से कहता है कि अगर इस प्रोग्राम में कोई भी गलती होती है तो वो हमारी तरफ़ से है इंतज़ाम करने वालों की तरफ़ से नहीं। ये सुनकर मालूम चलता है कि कोई शायर बड़ा कैसे बनता है। 
सुनने वाले इतने थे कि कुर्सियाँ कम पड़ गई। जवान बच्चे आगे स्टेज के पास बैठे हर एक शेर को ज़िंदा कर देते थे। मैं भी मोहतरमा के घुटनों में बैठ कर ग़ज़लें सुनता रहा। 
घर लौटते वक़्त हम दोनों के बीच अदब पर बात होती रही। शादी के फ़ैसले पर फिर से नाज़ होता गया।
आख़िर में इतना ही है कहने को कि मोहतरमा के साथ ज़िंदगी इक ग़ज़ल है जिसमें नये शेर जुड़ते जाते हैं। 
उदासी हमें कहीं से देखकर मुस्कुराती तो होगी।

Jashn

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