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ग़ज़ल लहू मांगती हैं।

ग़ज़ल- मेरा नज़रिया
फ़ारसी के ये भारी भरकम शब्द जैसे फ़ाइलातुन, मसतफ़ाइलुन या तमाम बहरों के नाम आप को याद करने की ज़रूरत नही है.ये सब उबाऊ है इसे दिलचस्प बनाने की कोशिश करनी है. आप समझें कि संगीतकार जैसे गीतकार को एक धुन दे देता है कि इस पर गीत लिखो. गीतकार उस धुन को बार-बार गुनगुनाता है और अपने शब्द उस मीटर / धुन / ताल में फिट कर देता है बस.. गीतकार को संगीत सीखने की ज़रूरत नहीं है उसे तो बस धुन को पकड़ना है. ये तमाम बहरें जिनका हमने ज़िक्र किया ये आप समझें एक किस्म की धुनें हैं.आपने देखा होगा छोटा सा बच्चा टी.वी पर गीत सुनके गुनगुनाना शुरू कर देता है वैसे ही आप भी इन बहरों की लय या ताल कॊ पकड़ें और शुरू हो जाइये.
हाँ बस आपको शब्दों का वज़्न करना ज़रूर सीखना है जो आप उदाहरणों से समझ जाएंगे.मैं पिछले लेख की ये लाइनें दोहरा देता हूँ जो महत्वपूर्ण हैं. व्याकरण को लेकर हम नहीं उलझेंगे नहीं तो सारी बहस विवाद मे तबदील हो जाएगी हमें संवाद करना है न कि विवाद.

<<हम शब्द को उस आधार पर तोड़ेंगे जिस आधार पर हम उसका उच्चारण करते हैं. शब्द की सबसे छोटी इकाई होती है वर्ण. तो शब्दों को हम वर्णों मे तोड़ेंगे. वर्ण वह ध्वनि हैं जो किसी शब्द को बोलने में एक समय में हमारे मुँह से निकलती है और ध्वनियाँ केवल दो ही तरह की होती हैं या तो लघु (छोटी) या दीर्घ (बड़ी). अब हम कुछ शब्दों को तोड़कर देखते हैं और समझते हैं, जैसे:

"आकाश"
ये तीन वर्णो से मिलकर बना है.

आ+ का+श.
अब छोटी और बड़ी आवाज़ों के आधार पर या आप कहें कि गुरु और लघु के आधार पर हम इन्हें चिह्नित कर लेंगे. गुरु के लिए "2 " और लघु के लिए " 1" का इस्तेमाल करेंगे.
जैसे:

सि+ता+रों के आ+गे ज +हाँ औ+र भी हैं.
(1+2+2 1 + 2+2 1+2+ 2 +1 2 + 2)
अब हम इस एक-दो के समूहों को अगर ऐसे लिखें.
122 122 122 122 <<

तो अब आगे चलते हैं बहरो की तरफ़.
उससे पहले कुछ परिभाषाएँ देख लें जो आगे इस्तेमाल होंगी.

तकतीअ:
वो विधि जिस के द्वारा हम किसी मिसरे या शे'र को अरकानों के तराज़ू मे तौलते हैं.ये विधि तकतीअ कहलाती है.तकतीअ से पता चलता है कि शे'र किस बहर में है या ये बहर से खारिज़ है. सबसे पहले हम बहर का नाम लिख देते हैं. फिर वो सालिम है या मुज़ाहिफ़ है. मसम्मन ( आठ अरकान ) की है इत्यादि.

अरकान और ज़िहाफ़:
अरकानों के बारे में तो हम जान गए हैं कि आठ अरकान जो बनाये गए जो आगे चलकर बहरों का आधार बने. ये इन आठ अरकानों में कोशिश की गई की तमाम आवाज़ों के संभावित नमूनों को लिया जाए.ज़िहाफ़ इन अरकानों के ही टूटे हुए रूप को कहते हैं जैसे:फ़ाइलातुन(२१२२) से फ़ाइलुन(२१२).

मसम्मन और मुसद्द्स :
लंबाई के लिहाज़ से बहरें दो तरह की होती हैं मसम्मन और मुसद्द्स. जिस बहर के एक मिसरे में चार और शे'र में आठ अरकान हों उसे मसम्मन बहर कहा जाता है और जिनमें एक मिसरे मे तीन शे'र में छ: उन बहरों को मुसद्द्स कहा जाता है.जैसे:
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं
(122 122 122 122)
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं.
(122 122 122 122)
यह आठ अरकान वाली बहर है तो यह मसम्मन बहर है.

मफ़रिद या मफ़रद और मुरक्कब बहरें :
जिस बहर में एक ही रुक्न इस्तेमाल होता है वो मफ़रद और जिनमे दो या अधिक अरकान इस्तेमाल होते हैं वो मुरक्कब कहलातीं हैं जैसे:
सितारों के अगे यहाँ और भी हैं
(122 122 122 122)
ये मफ़रद बहर है क्योंकि सिर्फ फ़ऊलुन ४ बार इस्तेमाल हुआ है.
अगर दो अरकान रिपीट हों तो उस बहर को बहरे-शिकस्ता कहते हैं जैसे:
फ़ाइलातुन फ़ऊलुन फ़ाइलातुन फ़ऊलुन

अब अगर मैं बहर को परिभाषित करूँ तो आप कह सकते हैं कि बहर एक मीटर है , एक लय है , एक ताल है जो अरकानों या उनके ज़िहाफ़ों के साथ एक निश्चित तरक़ीब से बनती है. असंख्य बहरें बन सकती है एक समूह से.

जैसे एक समूह है.

122 122 122 122
इसके कई रूप हो सकते हैं जैसे:

122 122 122 12
122 122 122 1
122 122
122 122 1
“ग़ज़ल” लफ़्ज़ों से ख़ालिक़े-कायनात की इबादत का जरिया है,उसके लिए जो इंतिहाई संजीदगी के साथ “ग़ज़ल”  का सफ़र तय करते हुए कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचकर अपनी शाइराना अज़्मतों को अदबी दुनिया से मनवाना चाहता है। इस हक़ीक़त से भी इन्कार  नहीं किया जा सकता है कि “ग़ज़ल” अपने लिए अपने शाइर से उसका लहू मांगती है और लहू की लाली ही ग़ज़ल के चेहरे को सुर्ख़-रू बनाने में कामयाब होती है। “ग़ज़ल”  की तीन हर्फ़ी बुनावट और बनावट “ग़ज़ल” के मुकम्मल होने का ऐलान करती है। “ग़ज़ल” में ग़ैब (ईश्वर),ज़िंदगी (जीवन) और लामहदूद कायनात ( अखिल ब्रह्मांड) “ग” (ग़ैन),”ज़” (ज़े) एवं “ल” (लाम) इन तीन हर्फ़ों के ज़रिए ही संपूर्णता समाहित होती है। “ग़ज़ल”  का हुस्न शाइर के ज़ह्न की ख़ूबसूरती और पाकीज़गी को नुमायां करता है। “ग़ज़ल” के शाइर में तज्रुबातो-अहसासात की ताबानकी का होना निहायत ज़रूरी है। शाइर की फ़िक्र को तरो-ताज़ा बनाकर लफ़्ज़ों का ज़ख़ीरा “ग़ज़ल”  के पैकर में रानाइयों को नमूदार करता है।

“ग़ज़ल”  की तस्वीर के दो पहलू हैं। एक पहलू “ग़ज़ल” की अरूज़ी हैसियत और इसकी मुकम्मल जानकारी से मोतबर बनाता है तो दूसरे पहलू के लिए मज़ामीन की वुस्अतो-नुदरत,ज़बान की शाइस्तगी,मुहावरों और अलंकारों की पुरकारी के साथ-साथ तारीख़ी पसमंजर भी मददगार साबित होते हैं। अरूज़ी वाक़फ़ीयत “ग़ज़ल” की बुनियाद को पुख़्ता बनाने के काम को अंजाम देती है। बुनियाद की मज़बूती और उसकी बाउसूल तामीर “ग़ज़ल”  की इमारत को पुख़्तगी और बुलंदी अता करती है। इस ऐतबार से पंडित सुरेश नीरव की ग़ज़लों को ख़रा उतरने में दुश्वारी पैदा होती है लेकिन किसी हद तक इन्होंने ग़ज़ल की दोशीज़ा के हुस्न को दूसरे ज़ेवरातो-जवाहिरात से सजाने का बाक़माल कारनामा अंजाम दिया है। साइंस के तालिबे-इल्म होने के बावजूद हिंदी-उर्दू अदब की ख़िदमत करते हुए तारिक़ अज़ीम 'तनहा' ज़िंदगी के उस मक़ाम तक आ पहुंचे हैं जहां इनके इर्द-गिर्द तज्रुबातो-मुशाहिदात की कहकशां जल्वा अफ़रोज़ है। अपनी मालूमात के दम पर और वसीअ मुतालिए की बिना पर इनकी ग़ज़लों का मेयार दूसरे ग़ज़लकारों से कहीं ज़ियादा पुरअसर और इबरतनाक है। मैंने “दास्ताने-तनहा” ग़ज़ल-संग्रह की तमामतर ग़ज़लें संजीदगी के साथ पढ़ी हैं और इस मुतालिए के ज़ेरे-असर ही ज़ाती राय क़ाइम करते हुए.ये दावा भी कर सकता हूं कि इनकी ग़ज़लें सोने की तरह खरी हैं मगर कुंदन बनने के लिए उसूलों की आग में तपना बाक़ी है। बहरो-वज़न और रदीफो-काफिया का इल्म जब सर चढ़कर शाइर के बोलता है तो ग़ज़ल के वक़ार में इज़ाफ़ा भी होता है और ग़ज़ल के परस्तारों के ज़हनो-दिल झूमने पर मजबूर भी होते हैं। इन्तिहाई ज़हानतों के मालिक,बेदार रूह रखनेवाले तारिक़ अज़ीम 'तनहा' कलम के धनी हैं। हिन्दी,उर्दू, अंग्रेजी, और पंजाबी अदब से इस्तफ़ादा हासिल करनेवाली तारिक़ अज़ीम 'तनहा' की मक़बूलियत
ने सबकी जिंदगी में एक रंग भरा हैं।

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