चेहरे पर हँसी हैं, मगर बेज़ार हैं तू क्यों,
लहज़ा संग दिल,कभी तलवार हैं तू क्यों!
हिज़रते-आशियाँ ओ सफ़र-ए-जिंदगी,
वक़्त -ए -हिज़्र में बेदार हैं तू क्यों!
तू छोड़ गए तुझ को गर्दिश- ऐ- दौरां में,
उन्हें लेकर बेकरार हैं हैं तू क्यों!
कभी चाहती थी तुझे भी हूरो-गिलमा,
इक बुतां के लिए मुश्के-गुबार हैं तू क्यों!
खातिर के ख़याल हम कहाँ लिख पाते,
'तनहा' इस दौर में कलमकार हैं तू क्यों!
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