मैं तो हूँ ही तिफ्ले-नादाँ,
इल्मे-कलम कहाँ,
लेकिन हक़ीक़त
ये भी है की जिन लम्हात
की ये चश्म तस्वीर
बना ले उन्हें दिल से ज़ुबाँ,
और ज़ुबाँ से लफ्ज़ देने
से मैंने कभी तक़ल्लुफ़
नही किया। वो पहले
था मेरे अल्फाज़ थिरकते
थे, लेकिन अब खिलाफ
-ए-जुल्मत के मैं निडर
लिखता हूँ।
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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