तजल्ली का असर नहीं लगता अब,
अँधेरे से भी डर नहीं लगता अब!
और किरदार आते जा रहे है इसमें,
ये किस्सा मुख़्तसर नहीं लगता अब!
कातिलो की बस्ती कहता हूँ मैं उसे,
दिल्ली मुझको शहर नहीं लगता अब!
'तनहा' जिसे जां करे निसार अपनी,
परवेज़ भी गैर पर नही लगता अब!
इंसाफ की छाँव किसे मिले आजकल,
इंसाफ का शज़र नहीं लगता अब!
हर शख्स भरोसे के काबिल नहीं,
हर शख्स मोतबर नहीं लगता अब!
उसकी याद में इतना जल चुका हूँ,
आफताब से भी डर नहीं लगता अब!
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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