दिन ढल चुका तो सब शाम को पहुँचे,
सभी अपने अपने मक़ाम को पहुचे,
वो लोग जो मुझे इस जां से अज़ीज़ थे,
वक़्ते-आखिर वो भी नाम को पहुँचे।
सफ़र करते हुए गिर-गिरकर यूँ,
आख़िरश हम भी इन'आम को पहुँचे।
मैंने उठाया ज़मीं से तिरे आँचल को यूँ,
कि शर न कोई तिरे एहतराम को पहुँचे।
जो पहुँचे थे सियाह-ओ-फ़ाम तक,
वो भी सबके सब तमाम को पहुँचे।
सभी अपने अपने मक़ाम को पहुचे,
वो लोग जो मुझे इस जां से अज़ीज़ थे,
वक़्ते-आखिर वो भी नाम को पहुँचे।
सफ़र करते हुए गिर-गिरकर यूँ,
आख़िरश हम भी इन'आम को पहुँचे।
मैंने उठाया ज़मीं से तिरे आँचल को यूँ,
कि शर न कोई तिरे एहतराम को पहुँचे।
जो पहुँचे थे सियाह-ओ-फ़ाम तक,
वो भी सबके सब तमाम को पहुँचे।
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
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