सनम से कलम तक
जुबाँ जो हो गयी हैं बेजुबाँ अपनी,
कहे तो क्या कहे हम दास्ताँ अपनी!
जब भी कभी सफ़र पे चला था मैं,
हर मोड़ पे नए लोगो से मिला था मैं,
मैं वो था जो जगमगया महफ़िल में,
दोस्त कहते थे फरोज़े-दीया था मैं!
ये सच हैं की बाते भी थी गराँ अपनी,
कहे तो क्या कहे हम दास्ताँ अपनी!!
मैं मशहूर था अपनी पसे-नज़र से,
आईन्दा-गुज़र से, और दीदावर से,
खबर कहाँ थी बे-सफ़र हो जाऊंगा,
मंज़िल से भी गया, गया मैं सफ़र से!
दर्द भरी हैं दिले-सोज़े-फुगाँ अपनी,
कहे तो क्या कहे हम दास्ताँ अपनी!!
नज़र से जब कभी नज़र मिल गयी,
लगा के जैसे कोई कली खिल गयी,
आप तो आशना हैं मौसमें-बहारा से,
ख़िज़ाँ थी बहार आई लेके दिल गयी!
दास्ताँ अब बन गयी बियांबाँ अपनी,
कहे तो क्या कहे हम दास्ताँ अपनी!!
नज़र से अज़्मो-वक़ार हुआ था मैं,
तेरी परेशानी के रूबरू खड़ा था मैं,
फिर क्या के रिश्ता तोड़ दिया तुमने,
या तुम बेवफा थे या बेवफ़ा था मैं!
तेरे खातिर थी जिंदगी तूफां अपनी,
कहे तो क्या कहे हम दास्ताँ अपनी!!
तुमने कर दिया अब बे-वक़ार मुझे,
याद करके रोता हूँ कहाँ करार मुझे,
मत भूल तुझसे था कभी प्यार मुझे,
ये सच हैं अब हैं तुझसे तकरार मुझे!
बना लिया हैं तुम्हे दुश्मने-जाँ अपनी,
कहे तो क्या कहे हम दास्ताँ अपनी!!
मिलेगा तुम्हे मेरा पता कोई दिन और,
करोगे मेरे लिए दुआ कोई दिन और,
तू मेरी एक नज़र के लिए भी तरसेगा,
अपने किये पर रोयेगा कोई दिन और!
सुनने को चाहे ये कहानी जहाँ अपनी,
'तनहा' फिर कहूँगा ये हैं दास्ताँ अपनी!!
तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
Comments
Post a Comment